इस लेख में अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त | Description of Basic Rules of Pleading | अभिवचन में संशोधन  पर चर्चा की गई है, यदि आप वकील, विधि के छात्र या न्यायिक प्रतियोगी परीक्षाओं की  तैयारी कर रहे है, तब आपके लिए अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त के बारें में जानना आवश्यक है –

अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त –

अभिवचन के मुख्यतया दो प्रकार के सिद्धांत हैं – सामान्यतः सिद्धांत एवं मूलभूत सिद्धांत। यहाँ हमें मूलभूत सिद्धांतों का अध्ययन करना है। ये सिद्धांत मुख्य रूप से सारवान तथ्यों के अभिकथन पर जोर देते हैं और साक्ष्य के अभिकथन को टालते हैं।  सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में मुख्यतया निम्नांकित अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त अथवा नियमों का उल्लेख मिलता है –

अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त मुख्यत चार होते है –

(1) केवल घटनाओं का उल्लेख किया जाना, विधि का नहीं

अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त का प्रथम नियम यह है कि, अभिवचनों में केवल उन्ही तथ्यों पर आधारित घटनाओं का उल्लेख किया जाना चाहिए, जिन पर वाद या परिवाद या प्रतिरक्षा आधारित होती हैं, उसमें विधि का उल्लेख नहीं करना चाहिए क्योंकि विधि का पता लगाने का कार्य न्यायालय का है।

अभिवचनों में पक्षकारों को यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि कौन-सी बात विधि के अनुरूप अथवा अनुकूल है और कौन-सी बात विधि के विपरीत है। यानि पक्षकारों को अभिवचनों में केवल उन्हीं तथ्यों एवं घटनाओं का उल्लेख करना चाहिए जिन पर वाद या प्रतिरक्षा आधारित होती है।

यह भी जाने – परिवाद पत्र पर मजिस्ट्रेट द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया | CrPC 1973, Sec. 200 to 203

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 6 नियम 2 के अनुसार – प्रत्येक अभिवचन में सूक्ष्म में केवल उन महत्त्वपूर्ण तथ्यों का कथन रहेगा, जिन पर अभिवचन करने वाला पक्षकार अपने दावे या अपनी प्रतिरक्षा के लिए निर्भर करता है। वादी को अपने वाद पत्र में सिर्फ उन सारभूत तथ्यों का विवरण देना है जिससे प्रतिवादी यह जान ले कि उसे किन-किन बातों का सामना करना है।

इसी तरह अभिवचन में ऐसी प्रथाओं या रुढियों का उल्लेख किये जाने की भी आवश्यकता नहीं है जो आमजन की जानकारी में होने के साथ विधि का बल भी रखती है। लेकिन इस नियम के अपवाद स्वरूप ऐसे मामले भी है जिनमे अभिवचनों में विधि का उल्लेख किया जा सकता है –

(क) न्यायिक सूचना,

(ख) विधिक आपत्तियाँ, जैसे- प्राङ्न्याय, परिसीमा, विबन्ध, क्षेत्राधिकार आदि के बारे में आपत्तियाँ,

(ग) विधि के अनुमान (inference of law)।

(2) केवल सारभूत तथ्य की घटनाओं का उल्लेख किया जाना

अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त का दूसरा नियम यह है कि प्रत्येक अभिवचन मे सभी सारवान तथ्यो (Material facts) की घटनाओं का उल्लेख किया जाना चाहिए यानि अभिवचन में अनावश्यक एवं असारभूत तथ्यों की घटनाओं का उल्लेख नहीं किया जाना चाहिए। सारभूत तथ्य से तात्पर्य उन बातों से है जो सम्पूर्ण वाद हेतुक को एक सूत्र में बांधने के लिए आवश्यक होते है।

सारवान तथ्य ऐसे तथ्य है जिनके साबित हो जाने पर पिटीशनर अथवा वादी को वह अनुतोष प्राप्त हो जाएगा जिसकी उसने पाने मामले में माँग की थी | कौनसा तथ्य सारभूत है और कौनसा नहीं, इस बात का निर्धारण प्रत्येक मामले की प्रकृति पर निर्भर करता है।

यह भी जाने – अपराधों का शमन से आप क्या समझते हैं? शमनीय अपराध एंव शमन का क्या प्रभाव है?

केस – श्रीमती सुकान्ति पटनायक बनाम शैलेन्द्र नारायण सिंह

इस मामले में यह कहा गया है कि, अभिवचन में केवल सारभूत तथ्यों का उल्लेख किया जाना चाहिये, सारभूत विशिष्टियों का नहीं। (ए.आई.आर. 2012 एन.ओ.सी. 160 उड़ीसा)

केस – दुर्गा देवी बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश

इस प्रकरण में यहा कहा गया है कि, अभिवचन समुचित होना चाहिये तथा इसमें सारभूत तथ्यों का उल्लेख किया जाना चाहिये। (ए.आई.आर. 2018 हिमाचल प्रदेश 58)

उदाहरण – सरकार के खिलाफ मामलों में सीपीसी की धारा 80 के अन्तर्गत नोटिस दिया जाना, व्यादेश के मामलों में प्रतिवादी द्वारा अवैध कार्य की बार-बार धमकियाँ दिया जाना, वैवाहिक मामलों में पति-पत्नी के बीच विधितया विवाह का सम्पन्न नहीं होना आदि सारभूत तथ्य की घटनायें हैं जिनका अभिवचन में उल्लेख किया जाना आवश्यक है।

(3) साक्ष्य का उल्लेख नहीं किया जाना

अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त का तीसरा नियम यह है कि, अभिवचन मे सारवान तथ्यों का उल्लेख होना चाहिए, उस साक्ष्य का नहीं जिसके द्वारा उन्हें प्रमाणित (साबित) करना है। यानि ऐसा साक्ष्य जिनसे मूल तथ्य सिद्ध किए जाते हैं, उनका अभिवचन में कोई स्थान नहीं है। 

यह भी जाने – धारा 24 | संस्वीकृति क्या है | परिभाषा एंव इसके प्रकार

तथ्य दो प्रकार के होते हैं –

(क) सिद्ध किये जाने वाले तथ्य – जिन सारभूत तथ्यों पर पक्षकार का मामला निर्भर करता है, उन्हें सिद्ध किये जाने वाले तथ्य कहा जाता है और उनका अभिवचन में अवश्य उल्लेख किया जाना चाहिए।

(ख) तथ्यों का साक्ष्य, जिनके द्वारा उन्हें सिद्ध किया जाना है – जिस साक्ष्य द्वारा इन तथ्यों को साबित किया जाना है उन्हें तथ्यों का साक्ष्य कहा जाता है और उनका अभिवचन में उल्लेख नहीं किया जाना चाहिए।

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1980 के आदेश 6 नियम 2 के अनुसार, अभिवचन करने वाला पक्षकार जिन सारभूत तथ्यों का अपने दावे या अपनी प्रतिरक्षा के लिए सहारा लेता है, अभिवचन में उन तथ्यों का, न कि उस साक्ष्य का, जिनके द्वारा उन्हें सिद्ध किया जाना है, उल्लेख करेगा।

उदाहरण – संविधान के विनिर्दिष्ट पालन के मामलों में उन व्यक्तियों के नाम दिया जाना आवश्यक नहीं है जिनके समक्ष सम्पत्ति के क्रय-विक्रय का अनुबंध हुआ था, क्योंकि यह साक्ष्य विषयक तथ्य है।

(4) घटनाओं का संक्षिप्त, किन्तु स्पष्ट एवं निश्चित उल्लेख किया जाना

अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त का चौथा और अन्तिम नियम यह बताता है कि, एक अच्छे अभिवचन के लिए यह आवश्यक है कि उसमें तथ्यों का संक्षिप्त कथन करने के साथ साथ उसका स्पष्ट एवं निश्चित उल्लेख किया जाना। अभिवचन में घटनाओं एवं तथ्यों का बढ़ा चढ़ाकर उल्लेख किया जाना वांछनीय नहीं है।

जहाँ तक संभव हो अभिवचन में तथ्यों एवं घटनाओं का संक्षेप में उल्लेख किया जाना चाहिए। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि तथ्यों एवं घटनाओं का उल्लेख इतना संक्षिप्त में किया जाये जिससे उनका महत्त्व ही समाप्त हो जाये।

स्वर्णिम नियम यह है कि अभिवचन में तथ्यों एवं घटनाओं का इस प्रकार उल्लेख किया जाये ताकि कोई आवश्यक बात छूट नहीं जाये और अनावश्यक बातों का समावेश नहीं हो जाये।

इस प्रकार उपरोक्त चार अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त अथवा सारभूत नियम हैं जिनका पालन करने की अपेक्षा की जाती है।

अभिवचन में संशोधन

सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 6 नियम 16 और 17 में अभिवचनों में संशोधन से सम्बन्धित विधिक उपबन्ध विहित किए गए है, जो इस प्रकार हैं –

(i) आदेश 6 नियम 16 के अनुसार – अभिवचन को काट देना 

  • जो अनावश्यक, कंलकात्मक (Scandalous), तुच्छ या तंग करनेवाली हो, अथवा
  • जो वाद के न्यायपूर्ण विचारण पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली, उलझन डालने वाली (कलेशकारी) था विलम्ब करने वाली हों, अथवा
  • जो अन्यथा न्यायालय की कार्यवाही (Process of the Court) का दुरुपयोग करने वाली हो|

(ii) आदेश 6 नियम 17 के अनुसार 

न्यायालय कार्यवाहियों के किसी भी प्रक्रम पर किसी भी पक्षकार को अपने अभिवचनो को ऐसी रीति से और ऐसे निर्वन्धनों (शर्तों) पर परिवर्तन या संशोधन करने की अनुमति दे सकता है, जो कि न्यायपूर्ण हो और ऐसे समस्त संशोधन किए जाऐंगे, जो, कि पक्षकारो के मध्य विवादग्रस्त वास्तविक प्रश्न के निर्धारण के प्रयोजन के लिए आवश्यक हो। अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त

सम्बंधित पोस्ट –

समन की तामील क्या है, प्रतिवादी पर जारी करने के विभिन्न तरीके | Modes of Effecting Service of Summons

सशर्त विधायन से आप क्या समझते है | सशर्त विधायन एवं प्रत्यायोजित विधायन में अंतर क्या है

आरोपों का संयोजन, कुसंयोजन एंव इसके अपवाद | आरोप की विरचना | धारा 218 से 223 CrPC

नोट – पोस्ट से सम्बंधित सामग्री एंव अपडेट जरुर  शेयर करें।