इस लेख में अभिवचन किसे कहते है | इसके प्रकार, मुख्य उद्देश्य तथा मूलभूत सिद्वान्त कोनसे है? आदि पर चर्चा की गई है, यदि आप वकील, विधि के छात्र या न्यायिक प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे है, तब आपके लिए अभिवचनों के बारें में जानना अत्यंत आवश्यक है –
परिचय – अभिवचन क्या है
जैसा की हम जानते है की न्याय प्रशासन एंव न्यायिक प्रक्रिया में अभि-वचन का महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि न्यायिक प्रक्रिया स्वत: चालित नहीं होती है उसे चलाना पड़ता है और उसे चलाने के लिए पक्षकारों को न्यायालय में वाद्पत्र या लिखित कथन प्रस्तुत करने पड़ते है, जिसे अभिवचन कहा जाता है|
एक तरह से यह कहा जा सकता है अभि-वचनों से ही न्यायिक प्रक्रिया को गति मिलती है और किसी मामले में सफलता या निराशा अभिवचन पर ही निर्भर करती है| प्रत्येक न्यायिक प्रक्रिया अभिवचन से ही प्राम्भ होती है, अभिवचन जितना संक्षिप्त, स्पष्ट एवम सुगठित होगा, न्यायिक प्रक्रिया उतनी ही सरल एवं शीघ्रगामी हो जायेगी।
यही कारण है कि, प्रकरण में अभिवचन तैयार करने का कार्य कुशल, अनुभवी एंव वरिष्ठ अधिवक्ता द्वारा ही किया जाना चाहिए इसके अलावा न्यायिक अधिकारीयों से भी यह अपेक्षा की जाती है कि, वे सिविल मामले में अंतिम व्यादेश जारी करने या विवाद्यकों की विरचना करने से पूर्व अभिवचनों का भली भाँती परिक्षण कर लें|
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अभिवचन किसे कहते है
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 6 नियम 1 के अनुसार अभिवचन से तात्पर्य वादपत्र या लिखित कथन से है| Pleading का हिन्दी अर्थ अभिवचन है, जिसमे वादपत्र (Plaint) या लिखित कथन (written statement) दोनों शामिल होते है।
इस तरह अभि-वचन में वादपत्र एंव लिखित कथन जिसे जवाब-दावा भी कहा जाता है दोनों शामिल होते है, यानि इन दोनों का संयुक्त नाम ही अभिवचन है|
ओजर्स के अनुसार – अभिवचन प्रत्येक पक्षकार द्वारा लिखित में प्रस्तुत किए गए वे कथन होते हैं जिनमें वह अपने उस विवाद का उल्लेख करता है जिस पर विचारण (trial) होना है एवं जिसमे वह ऐसे सब विवरणों को प्रस्तुत करता है जो उसके विपक्षी के लिए, उत्तर में अपना मामला (Case) तैयार करने के लिए जानने की आवश्यकता हो।
पी. सी. मोघा के अनुसार – अभिवचन से तात्पर्य ऐसे कथन से है जिसको मामले में प्रत्येक पक्षकार लिखित रूप मे तैयार करता है तथा जिसमें वह यह बताता है कि विचारण के समय उसका विवाद किन बातों पर होगा और वह इन कथनों का विवरण इतने विस्तार से देगा, जितना कि विरोधी पक्षकार के लिए उसका जवाब देना आवश्यक है।
आसान शब्दों में अभिवचन से तात्पर्य वादी के वादपत्र जिसमे वह अनुतोष की मांग करता है एंव प्रतिवादी के लिखित कथन जिसमे वह वादी के अनुतोष का खंडन करते हुए अपनी प्रतिरक्षा पेश करता है से है, इसी तरह किसी वाद के सम्बन्ध मे पक्षकारों की ओर से समय-समय पर न्यायालय में जो अभिवाक, माँग, दावे, आवेदन आदि लिखित में प्रस्तुत किए जाते है, चाहे वे वाद के किसी भी प्रक्रम में प्रेषित किए गए हों, अभिवचन कहलाते है|
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अभिवचन के प्रकार
मुख्यतः अभि-वचन दो प्रकार के माने गए है –
(i) वादपत्र (plaint), (ii) लिखित कथन (written statement)
(i) वादपत्र (plaint)
वादपत्र से तात्पर्य किसी मामले में वादी की ओर से प्रस्तुत किया गया दावे का कथन है, जिसमें वादी सभी आवश्यक विवरणों सहित वाद हेतुक (Cause of action) का उल्लेख करता है।
वादपत्र के अन्तर्गत वाद – हेतुक, वाद में के पक्षकार, न्यायालय की अधिकारिता, वाद की विषय – वस्तु तथा दावाकृत अनुतोष आदि अन्तर्वस्तुएँ सम्मलित है।
(ii) लिखित कथन (written statement)
लिखित कथन से तात्पर्य – प्रतिवादी द्वारा अपने बचाव में पेश किये गए कथनों से है, जिसमें प्रतिवादी, वादी द्वारा वादपत्र में कथित किए गए प्रत्येक तात्विक या सारवान तथ्य का उत्तर देता है। साथ ही ऐसे नये तथ्यों का भी उल्लेख करता है जो उसके पक्ष मे होते है।
लिखित-कथन मे प्रतिवादी की ओर से गुजराई का दावा होता है अथवा कोई नये वाकयात प्रस्तुत किए जाते है तो वादी को उसका पुन: प्रत्युत्तर देने का अवसर मिलता है जिसे जवाबुल जवाब भी कहा जाता है|
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अभिवचन के उद्देश्य –
मुख्य रूप से अभि-वचन के उद्देश्य निम्नलिखित है –
(1) दूसरे पक्ष को उचित सूचना देना
अभि-वचन के माध्यम से दूसरे पक्ष को मामले के बारें में जानकारी प्राप्त हो जाती है, जिससे विपक्षी पक्षकार अपनी प्रतिरक्षा में उचित कदम उठा सकता अभिवचन की अनुपस्थिति में ऐसा संभव नहीं हो पाता।
(2) निश्चित विवाद बिन्दुओं का पता लगाना एवं सीमित करना
यथार्थता के साथ उन बिन्दुओं को अभिनिश्चित करना, जिन पर पक्षकार सहमत है और जिन पर पक्षकारों में मतभेद हैं और इस तरह अभि-वचन का प्रमुख उद्देश्य पक्षकारों को निश्चित विवाद बिन्दुओं पर सीमित कर देना है। अभि-वचन का उद्देश्य किसी विवाद में पक्षकारों का ध्यान विवाद पर केन्द्रित करना है, जिससे विवाद को मुख्य रूप से केवल वादपत्रों तक ही सीमित किया जा सके|
(3) अनावश्यक खर्च एवं कठिनाइयों को कम करना
अभि-वचन के कारण पक्षकार स्वयं यह जान जाते हैं कि कौनसे मामले विवाद के लिए बचे हैं तथा किन तथ्यों को उन्हें विचारण के दौरान साबित करना है और इस प्रकार उन्हें वही साक्ष्य प्रस्तुत करना होता है, जो समुचित हो। इस प्रकार पक्षकार अनावश्यक खर्च एवं परेशानी से बच जाते हैं।
(4) असंगताएं दूर करना
अभि-वचन का मुख्य उद्देश्य असंगत तथ्यों को दूर करना है तथा मामले के पक्षकारों को विवाद ग्रस्त विषय वस्तु तक सीमित करना है। किसी भी वाद में विनिर्दिष्ट अभिवचन किया जाना आवश्यक है।
(5) न्यायालय को सहायता प्रदान करना
अभि-वचन के द्वारा न केवल पक्षकारों को सहायता मिलती है, वरन न्यायालय को भी विवाद को सुलझाने में सहायता मिलती है। यानि न्यायिक कार्यवाही के सुचारू संचालन के लिए अभिवचनों का होना आवश्यक है क्योंकि अभिवचन के नियम विधिपूर्ण निश्चय तक पहुँचने के लिए सहायक के रूप में होते हैं।
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(6) पक्षकारों के कथन में परिवर्तन से रोकना
अभि-वचन का उद्देश्य पक्षकारों के मध्य उठने वाले विवाद का पता लगाना तथा उसे कम करना है। अभिवचन के प्रस्तुतीकरण के पश्चात् पक्षकार उसमें न्यायालय के अनुमति के बिना परिवर्तन नहीं कर सकते हैं। इससे पक्षकार विवाद तक ही सीमित रहते हैं तथा परिवर्तन नहीं कर सकते हैं।
(7) अपीलीय न्यायालय को सहायता प्रदान करना
जब विचारण न्यायालय के द्वारा किसी विवाद का निपटारा कर दिया जाता है तथा उस निर्णय के विरुद्ध अपील की जाती है, तो पूर्व अभि-वचन बहुत महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि पूरे विवाद का विवरण तथ्य तथा विचारण न्यायालय में किए गए अभिवचनों से पता चल जाता है।
अभिवचन का निर्वाचन
भारत में निर्वचन के नियमों का कठोरता से पालन नहीं किया जाता है। अभिवचन का निर्वाचन उसके पूरे आशय के संदर्भ में किया जाना चाहिए। उदारता का अर्थ यह नहीं लगाना चाहिए कि अधिवक्ताओं के द्वारा अभिवचनों के नियमों की उपेक्षा की जानी लगे।
न्यायालय को अभिवचन के सार की ओर ध्यान देना चाहिए, न कि शब्दों पर| प्रक्रिया न्याय के हित में है, न कि उन पर प्रभावी हो जाये। साथ ही वादी का मामला केवल अभिवचन में कुछ तकनीकी कमी के कारण खारिज नहीं करना चाहिए, यदि वह मामले के वास्तविक विवादित तथ्यों के संबंध में सही है तथा साथ ही अभिवचनों को तकनीकी रूप से नहीं पढ़ा जाना चाहिए|
उदाहरण – जब कोई व्यक्ति किसी वसीयत पर विश्वास करता है तथा यह अभिवचन करता है कि इसका निष्पादन वसीयतकर्ता ने किया है, तब उक्त अभि-वचन का निर्वचन इस तरह से किया जाएगा कि वसीयतकर्ता ने स्वस्थ एवं गतिशील मानसिक स्थिति में उसे निष्पादित किया था।
न्यायालयों के द्वारा इस प्रकार से निर्वाचन किया जाएगा, जिससे पक्षकारों के वास्तविक अधिकारों का हल हो सके, न कि उनके अधिकारों में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न की जाए, परन्तु यह तब हो, जबकि अभिवचनों में दिये गए तथ्यों से इस प्रकार से हल किया जाना न्याय संगत हो, चाहे विशिष्ट तरीके, से वह प्रार्थना नहीं की गयी हो।
जहाँ प्रश्नगत मुद्दे का निर्वाचन किया जाना नियमों के असंगत नहीं होता है, तो वहाँ उसका निर्वाचन अपीलीय प्राधिकारी द्वारा किया जा सकता है।
अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त –
अभिवचन के मुख्यतया दो प्रकार के सिद्धांत हैं – सामान्यतः सिद्धांत एवं मूलभूत सिद्धांत। यहाँ हमें मूलभूत सिद्धांतों का अध्ययन करना है। ये सिद्धांत मुख्य रूप से सारवान तथ्यों के अभिकथन पर जोर देते हैं और साक्ष्य के अभिकथन को टालते हैं। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में मुख्यतया निम्नांकित अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त अथवा नियमों का उल्लेख मिलता है –
अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त मुख्यत चार होते है –
(1) केवल घटनाओं का उल्लेख किया जाना, विधि का नहीं
अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त का प्रथम नियम यह है कि, अभिवचनों में केवल उन्ही तथ्यों पर आधारित घटनाओं का उल्लेख किया जाना चाहिए, जिन पर वाद या परिवाद या प्रतिरक्षा आधारित होती हैं, उसमें विधि का उल्लेख नहीं करना चाहिए क्योंकि विधि का पता लगाने का कार्य न्यायालय का है।
अभिवचनों में पक्षकारों को यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि कौन-सी बात विधि के अनुरूप अथवा अनुकूल है और कौन-सी बात विधि के विपरीत है। यानि पक्षकारों को अभिवचनों में केवल उन्हीं तथ्यों एवं घटनाओं का उल्लेख करना चाहिए जिन पर वाद या प्रतिरक्षा आधारित होती है।
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सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 6 नियम 2 के अनुसार – प्रत्येक अभिवचन में सूक्ष्म में केवल उन महत्त्वपूर्ण तथ्यों का कथन रहेगा, जिन पर अभिवचन करने वाला पक्षकार अपने दावे या अपनी प्रतिरक्षा के लिए निर्भर करता है। वादी को अपने वाद पत्र में सिर्फ उन सारभूत तथ्यों का विवरण देना है जिससे प्रतिवादी यह जान ले कि उसे किन-किन बातों का सामना करना है।
इसी तरह अभिवचन में ऐसी प्रथाओं या रुढियों का उल्लेख किये जाने की भी आवश्यकता नहीं है जो आमजन की जानकारी में होने के साथ विधि का बल भी रखती है। लेकिन इस नियम के अपवाद स्वरूप ऐसे मामले भी है जिनमे अभिवचनों में विधि का उल्लेख किया जा सकता है –
(क) न्यायिक सूचना,
(ख) विधिक आपत्तियाँ, जैसे- प्राङ्न्याय, परिसीमा, विबन्ध, क्षेत्राधिकार आदि के बारे में आपत्तियाँ,
(ग) विधि के अनुमान (inference of law)।
(2) केवल सारभूत तथ्य की घटनाओं का उल्लेख किया जाना
अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त का दूसरा नियम यह है कि प्रत्येक अभिवचन मे सभी सारवान तथ्यो (Material facts) की घटनाओं का उल्लेख किया जाना चाहिए यानि अभिवचन में अनावश्यक एवं असारभूत तथ्यों की घटनाओं का उल्लेख नहीं किया जाना चाहिए। सारभूत तथ्य से तात्पर्य उन बातों से है जो सम्पूर्ण वाद हेतुक को एक सूत्र में बांधने के लिए आवश्यक होते है।
सारवान तथ्य ऐसे तथ्य है जिनके साबित हो जाने पर पिटीशनर अथवा वादी को वह अनुतोष प्राप्त हो जाएगा जिसकी उसने पाने मामले में माँग की थी | कौनसा तथ्य सारभूत है और कौनसा नहीं, इस बात का निर्धारण प्रत्येक मामले की प्रकृति पर निर्भर करता है।
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केस – श्रीमती सुकान्ति पटनायक बनाम शैलेन्द्र नारायण सिंह
इस मामले में यह कहा गया है कि, अभिवचन में केवल सारभूत तथ्यों का उल्लेख किया जाना चाहिये, सारभूत विशिष्टियों का नहीं। (ए.आई.आर. 2012 एन.ओ.सी. 160 उड़ीसा)
केस – दुर्गा देवी बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश
इस प्रकरण में यहा कहा गया है कि, अभिवचन समुचित होना चाहिये तथा इसमें सारभूत तथ्यों का उल्लेख किया जाना चाहिये। (ए.आई.आर. 2018 हिमाचल प्रदेश 58)
उदाहरण – सरकार के खिलाफ मामलों में सीपीसी की धारा 80 के अन्तर्गत नोटिस दिया जाना, व्यादेश के मामलों में प्रतिवादी द्वारा अवैध कार्य की बार-बार धमकियाँ दिया जाना, वैवाहिक मामलों में पति-पत्नी के बीच विधितया विवाह का सम्पन्न नहीं होना आदि सारभूत तथ्य की घटनायें हैं जिनका अभिवचन में उल्लेख किया जाना आवश्यक है।
(3) साक्ष्य का उल्लेख नहीं किया जाना
अभि-वचन के मूलभूत सिद्वान्त का तीसरा नियम यह है कि, अभिवचन मे सारवान तथ्यों का उल्लेख होना चाहिए, उस साक्ष्य का नहीं जिसके द्वारा उन्हें प्रमाणित (साबित) करना है। यानि ऐसा साक्ष्य जिनसे मूल तथ्य सिद्ध किए जाते हैं, उनका अभिवचन में कोई स्थान नहीं है।
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तथ्य दो प्रकार के होते हैं –
(क) सिद्ध किये जाने वाले तथ्य – जिन सारभूत तथ्यों पर पक्षकार का मामला निर्भर करता है, उन्हें सिद्ध किये जाने वाले तथ्य कहा जाता है और उनका अभिवचन में अवश्य उल्लेख किया जाना चाहिए।
(ख) तथ्यों का साक्ष्य, जिनके द्वारा उन्हें सिद्ध किया जाना है – जिस साक्ष्य द्वारा इन तथ्यों को साबित किया जाना है उन्हें तथ्यों का साक्ष्य कहा जाता है और उनका अभि-वचन में उल्लेख नहीं किया जाना चाहिए।
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1980 के आदेश 6 नियम 2 के अनुसार, अभि-वचन करने वाला पक्षकार जिन सारभूत तथ्यों का अपने दावे या अपनी प्रतिरक्षा के लिए सहारा लेता है, अभिवचन में उन तथ्यों का, न कि उस साक्ष्य का, जिनके द्वारा उन्हें सिद्ध किया जाना है, उल्लेख करेगा।
उदाहरण – संविधान के विनिर्दिष्ट पालन के मामलों में उन व्यक्तियों के नाम दिया जाना आवश्यक नहीं है जिनके समक्ष सम्पत्ति के क्रय-विक्रय का अनुबंध हुआ था, क्योंकि यह साक्ष्य विषयक तथ्य है।
(4) घटनाओं का संक्षिप्त, किन्तु स्पष्ट एवं निश्चित उल्लेख किया जाना
अभि-वचन के मूलभूत सिद्वान्त का चौथा और अन्तिम नियम यह बताता है कि, एक अच्छे अभिवचन के लिए यह आवश्यक है कि उसमें तथ्यों का संक्षिप्त कथन करने के साथ साथ उसका स्पष्ट एवं निश्चित उल्लेख किया जाना। अभिवचन में घटनाओं एवं तथ्यों का बढ़ा चढ़ाकर उल्लेख किया जाना वांछनीय नहीं है।
जहाँ तक संभव हो अभि-वचन में तथ्यों एवं घटनाओं का संक्षेप में उल्लेख किया जाना चाहिए। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि तथ्यों एवं घटनाओं का उल्लेख इतना संक्षिप्त में किया जाये जिससे उनका महत्त्व ही समाप्त हो जाये।
स्वर्णिम नियम यह है कि अभि-वचन में तथ्यों एवं घटनाओं का इस प्रकार उल्लेख किया जाये ताकि कोई आवश्यक बात छूट नहीं जाये और अनावश्यक बातों का समावेश नहीं हो जाये।
इस प्रकार उपरोक्त चार अभि-वचन के मूलभूत सिद्वान्त अथवा सारभूत नियम हैं जिनका पालन करने की अपेक्षा की जाती है।
अभिवचन में संशोधन
सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 6 नियम 16 और 17 में अभिवचनों में संशोधन से सम्बन्धित विधिक उपबन्ध विहित किए गए है, जो इस प्रकार हैं –
(i) आदेश 6 नियम 16 के अनुसार – अभिवचन को काट देना
- जो अनावश्यक, कंलकात्मक (Scandalous), तुच्छ या तंग करनेवाली हो, अथवा
- जो वाद के न्यायपूर्ण विचारण पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली, उलझन डालने वाली (कलेशकारी) था विलम्ब करने वाली हों, अथवा
- जो अन्यथा न्यायालय की कार्यवाही (Process of the Court) का दुरुपयोग करने वाली हो|
(ii) आदेश 6 नियम 17 के अनुसार
न्यायालय कार्यवाहियों के किसी भी प्रक्रम पर किसी भी पक्षकार को अपने अभि-वचनो को ऐसी रीति से और ऐसे निर्वन्धनों (शर्तों) पर परिवर्तन या संशोधन करने की अनुमति दे सकता है, जो कि न्यायपूर्ण हो और ऐसे समस्त संशोधन किए जाऐंगे, जो, कि पक्षकारो के मध्य विवादग्रस्त वास्तविक प्रश्न के निर्धारण के प्रयोजन के लिए आवश्यक हो। अभिवचन के मूलभूत सिद्वान्त
महत्वपूर्ण आलेख
पत्नी, संतान और माता-पिता के भरण-पोषण से सम्बन्धित प्रावधान – धारा 125 सीआरपीसी 1973
समन केस क्या है, मजिस्ट्रेट द्वारा इसका विचारण कैसे किया जाता है
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संदर्भ – बुक मुकेश अग्रवाल