नमस्कार दोस्तों, इस पोस्ट में मुस्लिम विधि के अन्तर्गत हिज़ानात (अभिरक्षा) क्या है, अभिरक्षा का अधिकारी कोन होता है एंव इसकी प्रकृति क्या है तथा यह अधिकार केसे समाप्त होता है आदि के बारें में बताया गया है, जो विधि के छात्रो व आमजन के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं,
मुस्लिम विधि में अवयस्क व्यक्ति की संरक्षकता एक महत्वपूर्ण विषय है। भारत के मुसलमानों पर गार्जियनशिप अधिनियम के साथ साथ मुस्लिम पर्सनल विधि भी लागू होती है तथा इनके नियम व्यक्तिगत अवयस्क के संरक्षण के लिए इस्तेमाल होते हैं। अवयस्क व्यक्ति की संरक्षकता में सबसे महत्वपूर्ण विषय शरीर की संरक्षता है जिसे हिज़ानात या अभिरक्षा भी कहा जाता हैं।
अनेक मामलों में पति पत्नी के मध्य विवाद होने या उनके वैवाहिक सम्बन्ध विच्छेद हो जाने पर अवयस्क संतान की संरक्षता का विषय उत्पन्न हो जाता है कि अवयस्क संतान का संरक्षक माता या पिता में से कौन होगा और यदि ये दोनों नहीं हो तब संरक्षक कौन होगा? मुस्लिम विधि के अंतर्गत हिज़ानात (अभिरक्षा) का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
हिज़ानत / अभिरक्षा
जैसा की हम जानते है की अवयस्क लड़के और लड़की के शरीर की संरक्षकता का अधिकार हिज़ानत कहलाता है। यानि सामान्य रूप से हिजानत अवयस्क लड़के और लड़की के शरीर के सम्बन्ध में प्राप्त होती है| हिजानत अरबी का शब्द है, जिसका अर्थ – बच्चे के भरण-पोषण के लिए उसका सरंक्षण है|
विशिष्ट रूप से हिजानत का अधिकार अवयस्क लड़के और लड़की के शरीर से सम्बंधित होता है क्योंकि इसमें अवयस्क सन्तान के पूर्ण एंव मानवीय व्यक्तित्व विकास हेतु प्यार एंव समझ की आवश्यकता होती है| इसलिए संतान के श्रेष्ठ हितों को ध्यान में रखते हुए माता या पिता में से किसी एक को अथवा अन्य किसी को बच्चे की अभिरक्षा का अधिकार दिया जा सकता है|
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अभिरक्षा का अधिकारी कोन होता है
मुस्लिम विधि के अनुसार प्रथम व प्रमुख रूप से प्राकृतिक सरंक्षक पिता होता है लेकिन अवयस्क लड़के और लड़की के शरीर की अभिरक्षा का अधिकार विशेष तौर पर माता को दिया जाता है हालाँकि माता को अवयस्क संतानों की अचल सम्पति को विक्रय करने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं होता है|
मुस्लिम विधि में अवयस्क लड़का जब तक 7 वर्ष व लड़की यौवनागम आयु प्राप्त नहीं कर लेती है उस समय तक अवयस्क सन्तान की अभिरक्षा हेतु माता को समर्थ माना गया है| अवयस्क मुस्लिम लड़की जब तक यौवनागम आयु को प्राप्त नहीं कर लेती अपनी माता की अभिरक्षा में रहेगी भले ही उसकी माता को उसके पिता ने तलाक दे दिया हो| (ए.आई.आर. 1952 मद्रास 280)
हिजानत के अधिकार में अवयस्क संतान के कल्याण को प्रमुख माना गया है यदि माता आर्थिक दृष्टि से गरीब है फिर भी वह हिजानत के अधिकार से वंचित नहीं होगी (सुब्रा बी बनाम डी. मोहम्मद, ए.आई.आर. 1988 केरल 30)
हनफी शाखा में अवयस्क लड़की के यौवनागम आयु की प्राप्ति तक तथा शफी विधि व मलिकी विधि में अवयस्क लड़की के विवाह तक उसकी हिजानत (अभिरक्षा) का अधिकार माता के पास सुरक्षित रहता है|
इसके अलावा यदि माता ने दूसरा विवाह कर लिया हो तब भी अवयस्क संतान के कल्याण को ध्यान में रखते हुए अवयस्क की अभिरक्षा का अधिकार उसे दिया जा सकता है (जहिरून हसन बनाम उ.प्र. राज्य, 1988 क्रि.लॉ.ज. 422 इलाहाबाद)
इसी प्रकार मुमताज बेगम बनाम मुबारक हुसैन के प्रकरण में संतान की आयु 4 वर्ष थी, प्यार, अनुराग की आवश्यकता को देखते हुए संतान की अभिरक्षा माता को सौंपने का निर्णय दिया गया इस प्रकरण में माता संतान के पिता से अलग रह रही थी (ए.आई.आर. 1986 म.प्र. 221)
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सरंक्षकता का अधिकार –
हिजानत की अवधी तक सरंक्षकता माता के पास रहती है और हिजानत की अवधी की समाप्ति (लड़का 7 वर्ष व लड़की यौवनागम प्राप्त होने तक) के बाद अवयस्क की सरंक्षकता निम्न क्रम में निहित हो जाती है –
(i) पिता का पिता
(ii) सगा भाई
(iii) सौतेला भाई
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मुस्लिम विधि में अभिरक्षा की प्रकृति
मुस्लिम विधि के अन्तर्गत माँ अपने अवयस्क बच्चे के केवल शरीर के संरक्षण की, बच्चे के लिंग के अनुसार एक नियत आयु तक हकदार होती है। लेकिन वह नैसर्गिक संरक्षक नहीं होती, केवल पिता ही या यदि वह मर गया हो तो उसका निष्पादक (सुत्री विधि के अन्तर्गत) कानूनी संरक्षक होता है। (इमाम बांदी बनाम मुतसद्दी 1918, 45 आई. ए. 73)
इस वाद के तथ्य इस प्रकार हैं –
विवादास्पद सम्पति मूलतः एक सुन्नी मुसलमान इस्माइल अली खाँ की थी| इसमें वादीगण का यह कहना था की मरते समय इस्माइल अली खां ने तीन विधवाएं एंव कई बच्चे छोड़े थे| उनमे से एक विधवा इनायत-उल जोहरा से, स्वयं उससे और उसके दो बच्चों की तरफ से, वादियों ने विवादग्रस्त सम्पति खरीद ली, जिस पर कब्जे के लिये उन्होंने प्रस्तुत वाद दायर किया|
इसमें दो प्राथनाए कि गई थी – पहली वादीगण के विक्रेताओं के स्वत्व और हैसियत की घोषणा और दूसरी विक्रयकि सम्पति पर कब्जे की वादीगण के पक्ष में डिक्री (जोहरा के लिखित दस्तावेज द्वारा और उसके अवयस्क बच्चों के हिस्सों का अंतरण इच्छित था।)
प्रतिवादी को इस बात से इन्कार था कि जोहरा, इस्माइल अली खाँ की विवाहिता पत्नी थी या उसके बच्चे इस्माइल के धर्मज बच्चे थे और उनका तर्क यह भी था कि बिक्री के द्वारा उसका हिस्सा अन्तरित नहीं हुआ। परीक्षण न्यायालय ने इच्छित इस्तकरार कब्जे की डिक्री दे दी। उच्च न्यायालय में की गई अपील खारिज हो गई। तब प्रिवी काउन्सिल में अपील की गई, जहाँ यह निर्णय हुआ –
कि क्या माता द्वारा किये गये बिक्री के द्वारा वादीगण ने शिशुओं के हिस्सों पर कोई स्वामित्व अर्जित किया? प्रतिवादी को आपत्ति यह थी कि उनकी माँ जोहरा को अपने बच्चों के हितो को अवतरण करने की कोई शक्ति नहीं थी|
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नीचे दी हुई प्रस्थापनाएं ध्यान देने योग्य है –
(1) यह बिल्कुल स्पष्ट है कि मुस्लिम विधि के अन्तर्गत माँ अपने अवयस्क बच्चे के लिंग के अनुसार एक निश्चित आयु तक केवल उसके शरीर के संरक्षण की हकदार है। वह नैसर्गिक संरक्षक नहीं होती सिर्फ पिता या यदि वह मर गया हो तो उसका निष्पादक (सुन्नी विधि के अन्तर्गत) नैसर्गिक संरक्षक होता है।
माँ को अपने अवयस्क बच्चे की सम्पत्ति से संव्यवहार करने का अधिकार, किसी गैर व्यक्ति या रिश्तेदार से, जिसके संरक्षण में शिशु किसी समय रहा हो, ज्यादा नहीं होता। वह स्वयं दायित्व ग्रहण कर सकती है, परन्तु शिशु पर कोई दायित्व आरोपित नहीं कर सकती, तथापि यह नियम ऐसे अवयस्क बच्चे की रक्षा के लिये है जिसका कोई कानूनी संरक्षक न हो, कुछ उपबन्धित अपवादों के अधीन है। इसका अर्थ यह है कि न्यायालय माता को अवयस्क की सम्पत्ति का संरक्षक नियुक्त कर सकता है।
(2) यदि माँ अपने शिशु की सम्पत्ति को बन्धक रखे तो वह वैध नहीं है, जब तक कि वह पिता की निष्पादिका न हो या अवयस्क के संरक्षक द्वारा उसके लिये प्राधिकृत न की गयी हो, या जब तक न्यायाधीश ने उसे शिशु की सम्पत्ति को बन्धक रखने की अनुमति न दे दी हो उस स्थिति में यह वैध होगा तथा कब्जे का प्रयोग का अधिकार बन्धकी में स्थापित हो जायेगा, परन्तु बन्धकी को विक्रय का अधिकार न होगा (फतवा–ए–आलमगीरी)|
माननीय न्यायाधीशों का यह मत था कि विक्रय करने की शक्ति बन्धक करने की शक्ति से अधिक व्यापक नहीं हो सकती।
श्रीमती ऐनुन्निसा बनाम मुख्तार अहमद (ए.आई.आर. 1975, इला. 67) के बाद में यह निर्णय किया गया –
कि अवयस्क, जिसकी आयु 10-11 वर्ष है, अपनी माँ की अभिरक्षा में है और उसने माँ के साथ रहने के लिये विवेकपूर्ण ढंग से अपने अधिनियम (Preference) का प्रयोग किया है, तब माँ का संरक्षण छीन कर पिता को नहीं दिया जा सकता|
यह दिगर है कि मुस्लिम विधि के अन्तर्गत पिता अवयस्क का संरक्षक होता है, लेकिन संरक्षक प्रतिपाल्य अधिनियम की धारा 25 के अधीन कार्यवाहियों में अवयस्क के संरक्षक के विषय में निर्णय करते समय अवयस्क के कल्याण का ध्यान रखा जाता है।
अब्दुल सत्तार हुसैन कुदचिकर बनाम शाहीना अब्दुल सत्तार कुदचिकर (ए.आई.आर. 1996 बॉम्बे 134) के वाद में बम्बई उच्च न्यायालय द्वारा हिजानत तय करते समय बच्चे के कल्याण का ध्यान रखा गया, जिसके तथ्य निम्न है –
इस वाद में पति पत्नी भी मुसलमान थे जिनका विवाह 1988 में पुणे में हुआ था। इनके 5 वर्ष का एक पुत्र एवं 2 वर्ष की एक पुत्री थी। पिता मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव था और रुपये 450 कमाता था तथा माता टेलीफोन विभाग में कार्य करती थी और रुपये 300 प्रतिमाह कमाती थी। 1994 में पक्षकारों का विवाह विच्छेद हो गया और 1995 में पति ने दूसरा विवाह कर लिया।
1994 में पत्नी ने अपने पुत्र की हिजानत के लिये आवेदन दिया। उसने कहा कि मुस्लिम विधि के अन्तर्गत उसे पुत्र के 7 वर्ष के होने तक तथा पुत्री के वयस्क होने तक अभिरक्षा का अधिकार है। परन्तु पति ने न्यायालय के समक्ष आग्रह किया कि पत्नी की आय उसकी आय से कम है इसलिये पुत्र को माता की अभिरक्षा में रखना उसके कल्याण में नहीं होगा।
उच्च न्यायालय ने अपना निर्णय देते हुये कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि इस वाद में मुस्लिम विधि के अन्तर्गत पुत्र की अभिरक्षा का अधिकार माता का होगा परन्तु हमें सर्वप्रथम अवयस्क के कल्याण के बारे में देखना होगा। केवल अधिक आय होना ही बच्चे के कल्याण का आधार नहीं हो सकता।
यहां पिता ने विवाह कर लिया और उसके व्यवसाय की प्रकृति ऐसी है कि उसे दिन भर घूमना होता है, कई दिनों तक घर नहीं आता ओर माता भले ही कम कमाती है परन्तु प्रत्येक शाम अपने घर बच्चों के पास आती है उनका पूरा ख्याल रखती है| अतः ऐसी परिस्थिति में पुत्र का माता की हिजानत (अभिरक्षा) में ही रहना बच्चे के कल्याण में होगा।
अभिरक्षा की समाप्ति
संरक्षक के अधिकार के लिये जिन अनर्हताओं की अपेक्षा की जाती है उन्हीं का अन्त अभिरक्षा का भी अन्त कर देता है। ऐसी अनर्हताओं को पाँच शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है –
(क) सामान्य अनर्हताएं –
कोई अवयस्क अपनी पत्नी या बच्चे के अलावा किसी दूसरे अवयस्क का संरक्षक होने के लिये अक्षम होता है।
(ख) स्त्रियों पर प्रभावी अनर्हताएं –
अवयस्क के पिता के द्वारा तलाक दिये जाने पर भी माँ अवयस्क के शरीर की संरक्षिका बनी रहती है। इस तथ्य का प्रमाण कि तलाक के पहले वह अवयस्क के साथ उपेक्षा से व्यवहार करती थी, उसे ऐसे अधिकार से वंचित नहीं करता, बशर्ते तलाक के बाद उसका जीवन अच्छा हो। अवयस्क के संरक्षण की अधिकृत माँ या कोई अन्य स्त्री निम्नलिखित स्थितियों में उस अधिकार को खो देती है –
(i) यदि वह अनैतिक हो, यानि उसने परपुरुषगमन किया हो, वेश्या हो गई हो, घोर तथा खुली अनैतिकता से कोई दण्डनीय अपराध किया हो, गाना गाने वाली या मातम करने वाली स्त्री का पेशा अपना लिया हो।
(ii) यदि वह ऐसे व्यक्ति से विवाह कर ले जो निषिद्ध आसत्तियों के भीतर अवयस्क का रिश्तेदार न हो| जैसे किसी अजनबी से|
(iii) यदि वह विवाहिता अवस्था में आकर अवयस्क के पिता के निवास स्थान से इतनी दूर रहने लगे कि वह अक्सर उसके और बच्चे के पास न आ सके।
(iv) यदि वह उपेक्षा करें या बच्चे की उचित देखभाल करने में असमर्थ हो।
(ग) पुरुषों पर प्रभावी अनर्हताएं –
मुस्लिम विधि का यह सामान्य सिद्धान्त है कि कोई ऐसा पुरुष, जो निषिद्ध आसत्तियों के भीतर का सम्बन्धी न हो या जो दुराचारी हो, किसी अवयस्क लड़की के संरक्षण का अधिकारी नहीं है लेकिन यह नियम सुन्नी विधि का है और शिया विधि पर इसका कोई प्रभाव नहीं है।
शिया विधि केवल माँ-बाप और पितामह के और किसी को भी अधिकृत संरक्षक के रूप में मान्यता नहीं देती। परन्तु चूंकि शिया ग्रन्थों या संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम में इस अनर्हता का विशेष रूप में उल्लेख नहीं है, इसलिये संरक्षक नियुक्त करते समय न्यायालय इस नियम का यह आशय नहीं लगाएगा की शिया लोगों में यह एक निरपेक्ष अनर्हता है,
लेकिन वास्तविक दावेदारी में चुनाव करने में उस पर विचार किया जा सकता है। संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम की धारा 25 न्यायालय से यह अपेक्षा करती है कि, वह संरक्षक नियुक्त अथवा घोषित करने में उस विधि के अनुरूप अवयस्क जिस विधि के अधीन हो, यह ध्यान रखे कि प्रत्यक्षतः अवयस्क का कल्याण किसमें है।
(घ) माता–पिता पर प्रभावी अनर्हताएँ –
मुस्लिम विधि में अवयस्क के शरीर और सम्पत्ति के बीच के प्रभेद को मान्यता दी गई है। मुस्लिम विधि और भी आगे बढ़ गई है और अवयस्क के शरीर को दो प्रकार की संरक्षकता के बीच प्रभेद करती है –
(1) अभिरक्षा (Custody) एवं शिक्षा के लिये (2) विवाह की संविदा करने के लिये।
मुस्लिम विधि सात साल के लड़कों और वयस्कता प्राप्त करने तक लड़कियों की अभिरक्षा पिता की बजाए माता को देती है। पिता अवयस्क का नैसिर्गक संरक्षक होता है तथा संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम के अन्तर्गत न्यायालय को यह शक्ति नहीं है कि ऐसे अवयस्क के शरीर का कोई अन्य संरक्षक नियुक्त करे जिसका पिताजी जीवित हो और न्यायालय के मत में अवयस्क का संरक्षक होने के अयोग्य न हो।
जब नैसर्गिक संरक्षक स्वयं नैसर्गिक संरक्षक न रह जाये और उसके आचरण से यह प्रकट हो कि वह अस्वाभाविक संरक्षक हो गया है, तब वह अपना अधिकार खो देता है,
जैसे – अपनी बीवी-बच्चों के प्रति निर्दयता के द्वारा या घोर अपराध या परस्त्रीगमन के द्वारा। यद्यपि परस्त्रीगमन अनर्हता नहीं है, यदि स्त्री के बच्चे के सम्पर्क में लायी जाये। (विल्सन)
निम्नलिखित आधारों पर न्यायालय पिता की अपने बच्चे की संरक्षकता में हस्तक्षेप करेगा –
(i) यदि वह चरित्र और आचरण से अयोग्य हो,
(ii) यदि वह बाह्य परिस्थितियों में अयोग्य हो,
(iii) यदि वह अपने अधिकार का त्याग कर दे,
(iv) यदि वह उसके विपरीत समझौता कर ले,
(v) यदि वह न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के बाहर या समुद्र पार जाने वाला हो।
तलाक द्वारा माँ अनर्हित नहीं होती – बच्चों के पिता द्वारा तलाक दिये जाने पर भी माँ बच्चों की अभिरक्षा के अधिकार को नहीं खोती है।
(ङ) पति पर प्रभावी अनर्हताएं –
मुस्लिम विधि के अन्तर्गत पति अपनी अवयस्क पत्नी के संरक्षण का हकदार नहीं है जब तक कि वह वयस्क न हो जाये या उसकी ऐसी उम्र न हो जाये कि विवाह पूर्णावस्था को पहुँच सके।
संरक्षण और प्रतिपाल्य अधिनियम की धारा 19 (क) के अन्तर्गत पति विधिक मामलों में, जब तक कि वह मुस्लिम विधि के अन्तर्गत पत्नी के संरक्षण के लिये अधिकृत न हो जाये, न्यायालय द्वारा पत्नी के शरीर का संरक्षण (हिजानत) होने के लिये अयोग्य समझा जायेगा। अवयस्क विवाहिता लड़की के संरक्षण की हकदार पति के बजाय माता होती है।
(च) वसीयती संरक्षकता (Testamentary guardianship) –
वसीयती संरक्षक वसीयतनामा के अन्तर्गत नियुक्त किया गया सम्पत्ति का संरक्षक होता है। नियुक्त करने का अनन्य अधिकार अवयस्क के पिता और पितामह को होता है। माता को वसीयत द्वारा सम्पत्ति की अभिरक्षा के सम्मोदन का भी अधिकार नहीं होता है।
संरक्षक की पदच्युति –
कोई भी संरक्षक, चाहे वह विधितः हो या वस्तुतः अवयस्क प्रतिपाल्य के हित में न्यायालय द्वारा हटाया जा सकता है। न्यायालय हितैषी व्यक्ति (next friend) के आवेदन पर या स्वतः निम्नलिखित आधारों में से किसी आधार पर न्यायालय द्वारा नियुक्त या घोषित संरक्षक या वसीयत या अन्य संलेख द्वारा नियुक्त संरक्षक को हटा सकता है –
(i) अपने पर किये गये न्यास का दुरुपयोग करने के कारण,
(ii) अपने व्यस्त कर्तव्यों के पालन में निरन्तर असफल रहने के कारण,
(iii) न्यास (Trust) के कर्तव्यों के पालन को असमर्थता के कारण,
(iv) दुर्व्यवहार या अपने प्रतिपाल्य की उचित देख-रेख करने में उपेक्षा के कारण,
(v) संरक्षक और प्रतिपालय अधिनियम के किसी उपबन्ध या न्यायालय के किसी आदेश की निरन्तर अवहेलना के कारण,
(vi) ऐसे अपराध के सिद्धदोष ठहराये जाने के लिये, जिसमें न्यायालय के मत में चरित्रदोष एक आवश्यक उपादान हो, जो उसे अपने प्रतिपाल्य का संरक्षक होने के अयोग्य बना दे
(vii) अपने कर्तव्यों के निष्ठा के साथ पालन के प्रतिकूल हित (स्वार्थ) रखने के कारण,
(viii) न्यायालय के अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर निवास की समाप्ति के कारण,
(ix) सम्मति के संरक्षक के दिवालियापन के कारण,
(x) जिस विधि के अधीन अवयस्क हो उसके अन्तर्गत संरक्षकता त हो जाने के कारण।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक पर्याप्त कारणों से हटाया जा सकता है। यदि संरक्षक न्यायालय की दृष्टि में संरक्षक के कर्तव्यों का निर्वाह करने में अक्षम है तो उचित मामलों में न्यायालय कानूनी संरक्षक के बजाय दूसरे को भी संरक्षक नियुक्त कर सकता है।
संरक्षकता के सम्बन्ध में सुन्नी और शिया विधि में अंतर
सुन्नी विधि | शिया विधि |
पिता और पिता के अलावा कई और रिश्तेदार है विवाहार्थ संरक्षक हो सकते हैं। | विवाहार्थ संरक्षक केवल पिता अथवा पिता के पिता होते हैं और शेष सब फुजूली हैं। |
पिता और पितामह से भिन्न संरक्षक द्वारा कराये गये विवाह में वयस्कता प्राप्त कर लेने पर स्वीकृति अपेक्षित है। | ऐसे विवाह पूर्णतया निष्प्रभावों होते हैं, जब तक कि उसका स्पष्ट रूप से अनुसमर्थन न किया जाए |
माता सात वर्ष की आयु तक लड़के के शरीर की और वयस्कता प्राप्त करने तक लड़की के शरीर की संरक्षिका होती है | माता दो वर्ष की आयु तक लड़के के शरीर की और सात वर्ष की आयु तक लड़कों की संरक्षिका होती हैं। |
महत्वपूर्ण आलेख –
कमीशन कब जारी किया जाता है और कमिश्नर को प्राप्त शक्तियों का उल्लेख | धारा 75 सीपीसी
अपकृत्य विधि के तत्व | बिना हानि के क्षति तथा बिना क्षति के हानि – अपकृत्य विधि
सेशन न्यायालय के समक्ष अपराधों के विचारण की प्रक्रिया | Sec. 225 to 237 CrPC
पत्नी, संतान और माता-पिता के भरण-पोषण से सम्बन्धित प्रावधान – धारा 125 सीआरपीसी 1973
संदर्भ :- अकील अहमद 26वां संस्करण