नमस्कार, इस आलेख में भारतीय दण्ड संहिता के अनुसार अपराध के तत्व क्या है | भारतीय विधि में अपराध के तत्व  | Elements Of Crime in Hindi | आशय एवं हेतु में प्रमुख अन्तर क्या – क्या है? के बारें में बताया गया है, जो विधि के छात्रो व आमजन के लिए काफी महत्वपूर्ण है

परिचय – अपराध के तत्व

जैसा की हम सभी जानते है की मानव एक सामाजिक प्राणी है जो अपना जीवन आदर्श रूप में जीना चाहता है| वह नहीं चाहता की कोई भी व्यक्ति ऐसा कार्य करे जो कार्य कानून के विरुद्ध हो और उसके जीवनयापन में रूकावट उत्पन्न करें| हमारे लिए यह जानना जरुरी होगा की कोई भी कार्य अथवा कार्यलोप स्वतः अपने आप में अपराध नहीं होता है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो हमारे प्रतिदिन जीवन के सभी कार्य भी अपराध की श्रेणी में आ जाएगे।

अपराध के सम्बन्ध में कुछ कार्य ऐसे होते हैं जो मनुष्य जानबूझकर अपने फायदे के लिए तथा कुछ कार्य ऐसे भी होते हैं जो अनजाने में हो जाते हैं। इसी प्रकार मानव कुछ कार्य सद्भावना व स्वेच्छा से करता है तो कुछ कार्य विवशता के कारण भी करता है| इस तरह के कार्यो के पीछे मानव का दुराशय व सद्भावना रहती है जिस कारण से किसी को हानि तो किसी को लाभ मिलता है।

हमारे कानून में दण्ड विधि का मुख्य उद्देश्य समाज से अपराध को समाप्त करना है| विधिशास्त्रियों एंव अपराधशास्त्रियों की परिभाषा के अनुसार किसी “कार्य या कार्य-लोप” को अपराध बनाने या नहीं बनाने के लिए कुछ ऐसी बातें होती हैं जिन्हें हम विधिक भाषा में ‘अपराध के तत्व (Elements of Crime)’ कहते हैं।

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अपराध के तत्व कितने है / Elements Of Crime

(a) किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा अपराध कारित किया गया हो जो एक विशेष रीति से कार्य करने के लिये विधिक दायित्व के अधीन हो और समुचित दण्ड के अधिरोपण के लिये उपयुक्त हो,

(b) ऐसे व्यक्ति द्वारा किये गए कार्य में दुराशय (Mens rea) निहित होना चाहिए,

(c) ऐसा कार्य अथवा लोप दुराशय के अनुसरण में किया गया हो,

(d) और ऐसे कृत्य के फलस्वरूप मानव समाज या समुदाय को कोई अपहानि कारित हुई हो।

हॉल ने मुख्यतः सात अपराध के तत्व बताये हैं-

(a) आशयपूर्वक या असावधानीपूर्वक कोई कार्य किया जाना|

(b) कोई भी कार्य दुराशय अथवा आपराधिक आशय से किया जाना|

(c) किसी कार्य में दुराशय एवं आचरण का एक साथ अर्थात् सहगामी होना|

(d) ऐसे किसी कार्य से कुछ बाहरी परिणाम अथवा हानि कारित होना और ऐसी हानि विधि द्वारा निषिद्ध होना|

(e) स्वैच्छिक आचरण एवं विधि द्वारा निषिद्ध हानि के बीच हेतुक-सम्बन्ध (Causal relation) होना तथा ऐसे कार्य के लिये विधि द्वारा निर्धारित दण्ड होना।

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हुदा के अनुसार अपराध के तत्व –

(a) व्यक्ति पर किसी कार्य विशेष को करने का दायित्व हो तथा उसकी सक्षमता उचित दण्ड के लिये विषय हो ।

(b) किसी कार्य में दुराशय अथवा आपराधिक आशय का होना और,

(c) ऐसे आशय से उत्प्रेरित होकर किसी कार्य को करना,

(d) ऐसे कार्य से जन-साधारण को अथवा किसी व्यक्ति विशेष को कोई हानि कारित होना।

अपराध के मानसिक तत्व Mental elements

किसी व्यक्ति द्वारा अपराध के कारित किये जाने में मानसिक तत्वों (Mental elements) का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। ये तत्व आपराधिक विधि में सिद्धान्तों को सुनिश्चित करते हैं। यहं पर अपराध के मुख्य मानसिक तत्व दिए गए है जो निम्नलिखित है –

(i) आशय (Intention)

(ii) हेतुक (Motive)

(iii) दुराशय (Mens rea)

(iv) ज्ञान (ज्ञान)

(v) निर्दोषता (मासूमियत)

(vi) तथ्य की भूल (Mistake of fact)

(vii) विधि की भूल (Mistake of law)

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भारतीय विधि में अपराध के तत्व क्या है?

भारतीय विधि में अपराध के तत्व का विशेषत अलग वर्णन नहीं किया गया है, अपितु प्रत्येक अपराध के तत्व का उसके साथ ही वर्णन किया गया है। जिनका संक्षेप में उल्लेख किया गया है

(i) कार्य या कार्यलोप का होना –

यह अपराध का प्रथम आवश्यक तत्व है| किसी व्यक्ति द्वारा किसी कार्य को किया जाना या जो कार्य करना है उससे विरत रहना ही ‘कार्य’ अथवा ‘कार्यलोप’ (act or omission) हैं।

किसी व्यक्ति द्वारा ऐसे किसी कार्य को किया जाना जो विधि द्वारा वर्जित है यानि जिस कार्य को करने का कानून अधिकार नहीं देता है तथा किसी व्यक्ति द्वारा ऐसा कोई कार्य नहीं करना जिस कार्य को करने के लिए वह विधि द्वारा आबद्ध है| उपरोक्त दोनों ही प्रकार के कार्य ‘अपराध’ की श्रेणी में आते हैं।

उदाहरण – किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी अन्य व्यक्ति को किसी निश्चित परिसीमा में अवरोधित करें। फिर भी यदि वह किसी व्यक्ति को स्वेच्छया किसी निश्चित परिसीमा में अवरोधित कर देता है तो वह ‘सदोष परिरोध’ का दोषी माना जायेगा।

यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि, आपराधिक कार्य को किसी मानव प्राणी द्वारा किया जाना आवश्यक है, लेकिन प्राचीन काल में पशुओं के कृत्य को भी आपराधिक कार्य माना जाता था तथा उस पशु के साथ साथ उसके स्वामी को भी दण्डित किया जाता था। उदाहरण –

यहूदियों की विधि में मोजेज ने आदेश दिया था – “यदि बैल मनुष्य अथवा स्त्री को सींग से मारे और वह मर जाये तो उस बैल को पत्थरों से मार डाला जायेगा और उसका मांस नहीं खाया जायेगा, किन्तु बैल का स्वामी निर्दोष होगा।”

लेकिन आगे चलकर बैल के स्वामी को भी उत्तरदायी ठहराया जाने लगा –

“यदि बैल को पहले से ही सींग मारने की आदत थी और इस आदत का ज्ञान उसके स्वामी को था और फिर भी उसने बैल को संयत एवं सम्भाल कर नहीं रखा, जिसके फलस्वरूप उसने एक पुरुष और स्त्री को मार डाला, तब उस बैल को पत्थरों से मार डाला जायेगा और उसके स्वामी को भी मृत्युदण्ड होगा।”

अब वर्तमान में केवल मानव प्राणी को ही दण्ड दिया जाता है। इसके पीछे प्रमुख धारणा ” आपराधिक मनःस्थिति” के तत्व की मानी जाती है।

(ii) सक्षमता –

किसी अपराध को कारित करने में अपराधी व्यक्ति का ‘सक्षम’ होना जरुरी है। यहाँ सक्षमता से तात्पर्य ‘विधिक सक्षमता’ से है। एक व्यक्ति शारीरिक अथवा भौतिक रूप से कोई कार्य करने के लिये सक्षम हो सकता है, लेकिन विधिक रूप से वही व्यक्ति सक्षम नहीं माना जा सकता है।

उदाहरण – सात वर्ष से कम आयु का कोई शिशु किसी व्यक्ति को कोई हानि कारित कर सकता है, लेकिन दण्ड संहिता की धारा 82 के अन्तर्गत उसे अपराध नहीं माना जाता। इसी प्रकार संहिता में अन्य ऐसे कई अपवादों का उल्लेख किया गया है जो ‘अपराध’ की श्रेणी में नहीं आते है|

जैसे – विकृतचित्त व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य, सद्भावना से किया गया कार्य, दुर्घटनावश कारित कार्य, तथ्य की भूल के अधीन किया गया कार्य, आदि। इस प्रकार किसी कार्य को तभी ‘अपराध’ माना जा सकता है, जबकि वह सभी तरह से अपराध की परिसीमा में आता हो।

(a) विधि की भूल (Mistake of Law) – विधि की भूल के सम्बन्ध में एक सर्वमान्य सिद्धान्त यह है कि – तथ्य की भूल क्षम्य है, किन्तु विधि की भूल क्षम्य नहीं हो सकती। यह सिद्धान्त इस सूत्र पर आधारित है कि-” ignorantia juris non excusat” अर्थात् “ignorance of law is no excuse”

सामान्यतया यह माना जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति को विधि की जानकारी है और वह विधि की अज्ञानता का सहारा लेकर बच नहीं सकता है।

उदाहरण – हत्या करना एक अपराध है। अतः कोई भी व्यक्ति, जिसने हत्या का अपराध किया है, अपने बचाव के पक्ष में यह तर्क नहीं दे सकता है कि उसे विधि की इस व्यवस्था का ज्ञान नहीं था कि हत्या एक कानूनन अपराध है और हत्या करने वाले व्यक्ति को दंडित किया जाता है।

इस सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय के कहा कि – “यद्यपि अद्यतन संविधान संविधियों का अपराध स्थल पर पहुँच पाना अत्यन्त कठिन है अर्थात् किसी संविधि के बनते ही प्रत्येक व्यक्ति को उसका तत्काल ज्ञान हो जाना असम्भव है, फिर भी कोई भी व्यक्ति इस अज्ञानता के कारण दण्ड से बच नहीं सकता है।” (स्टेट आफ महाराष्ट्र बनाम एम.एच. जार्ज)

लार्ड एलेनबरा ने विधि की भूल के सम्बन्ध में कहा है “यदि अत्यन्त ही गम्भीर मामलों से बचने के लिये विधि के अज्ञान को बचाव का आधार मानने की अनुमति दे दी जाय तो यह नहीं कहा जा सकता कि अज्ञान का बहाना कितनी दूर आगे बढ़ जायेगा।’

(b) तथ्य की भूल (Mistake of fact) – तथ्य की भूल इस सूत्र पर आधारित है कि- “Ignorantia facit excusat” अर्थात् ignorance of fact is a good excuse. तथ्य की भूल क्षम्य होती है और यह बचाव का एक अच्छा आधार हो सकती है।

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 76 के अनुसार –

“कोई बात अपराध नहीं है, जो किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाये जो उसे करने के लिये विधि द्वारा आबद्ध हो या जो तथ्य की भूल के कारण, न कि विधि की भूल के कारण सद्भावनापूर्वक विश्वास करता हो कि वह उसे करने के लिये विधि द्वारा आबद्ध है।”

केस – गोपालिया कालिया (1923, 26 बम्बई एल.आर. 138)

यह एक महत्वपूर्ण प्रकरण है इसमें एक पुलिस अधिकारी एक व्यक्ति की वारण्ट के अन्तर्गत गिरफ्तार करने के लिये बम्बई जाता है। युक्तियुक्त जाँच के पश्चात् एवं सद्भावनापूर्वक यह विश्वास करते हुए कि गिरफ्तार किया जाने वाला व्यक्ति वहीं है, वह परिवादी को गिरफ्तार कर लेता है। परिवादी उस पुलिस अधिकारी के विरुद्ध ‘सदोष परिरोध’ के लिये कार्यवाही करता है। यह धारण किया गया कि पुलिस अधिकारी इस धारा के अन्तर्गत सुरक्षित होने के कारण किसी भी अपराध का दोषी नहीं था। 

(iii) ध्येय, आशय एवं दुराशय का होना –

अपराध के तत्व में ‘ध्येय’ (Motive), ‘आशय’ (Intention) एवं ‘दुराशय’ (Mens Rea) का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इन तत्वों को अपराध के ‘मानसिक तत्व’ भी कहा जाता हैं।

(a) ध्येय – साधारण शब्दों में ‘ध्येय’ का अर्थ – ‘लक्ष्य’ अथवा ‘उद्देश्य’ है। प्रायः सभी प्रकार के कार्यों के पीछे कोई न कोई ‘ध्येय’ अथवा ‘लक्ष्य’ अवश्य रहता है। निरुद्देश्य अथवा लक्ष्यरहित कोई कार्य नहीं किया जाता। जब कोई व्यक्ति किसी लक्ष्य की परिणति में कोई कार्य कर लेता है तो वह ‘अपराध’ की कोटि में आ सकता है।

उदाहरण – क और ख के बीच लेन देन के मामले को लेकर विवाद पैदा हो गया और दोनों एक-दूसरे दुश्मन हो गये। क ने दुश्मनी का बदला लेने के लिये ख की हत्या कर दी। यहाँ ‘दुश्मनी का बदला लेना’ क का ‘ध्येय’ माना जायेगा।

‘ध्येय’ नैतिक-अनैतिक, वैधानिक- अवैधानिक, अच्छा-बुरा कैसा भी हो सकता है, ‘ध्येय’ मात्र से ही हम किसी कार्य को अपराध नहीं मान सकते है। यदि ‘ध्येय’ को प्राप्त करने के साधन ‘विधि के विरुद्ध’ हैं तब यह ‘ध्येय’ अपराध की सीमा में आ जायेगा।

जैसे हमारा लक्ष्य – समाजवाद की स्थापना करना, आर्थिक असमानता को मिटाना, पूंजीपति को समाप्त करना, आदि है, लेकिन यदि इसे प्राप्त करने के लिये हम ‘हिंसा’ का सहारा लेते हैं तब हमारा यह ‘लक्ष्य’ अपराध की श्रेणी में जायेगा, भले ही हमारा लक्ष्य कितना ही पवित्र हो।

आसान शब्दों में – ‘लक्ष्य’ और ‘साधन’ दोनों मिलकर किसी अपराध का गठन करते हैं और यदि ‘लक्ष्य’ पवित्र है तो ‘साधन’ भी पवित्र होने चाहिये, ताकि वह अपराध की श्रेणी में न आये। इसी तरह ‘ध्येय’ का भी अपने आप में विधि के अनुकूल होना आवश्यक है। बुरे ध्येय को अच्छे साधनों से भी पूरा नहीं किया जा सकता।

(b) आशय – ‘ध्येय’ का अगला कदम आशय है। ‘ध्येय’ को कार्यरूप में करना ही उसका ‘आशय’ माना जाता है। जैसे – ‘दुश्मनी का बदला लेना’ किसी व्यक्ति का ध्येय है और मृत्यु कारित कर देना उस व्यक्ति का आशय है।

ऑस्टिन के अनुसार – आशय कार्य का लक्ष्य है और ध्येय अर्थात् प्रयोजन जिसका स्रोत है। निकटस्थ आशय दोषपूर्ण कार्य का सहगामी हैं। दूरस्थ ‘आशय या प्रयोजन उस सम्पूर्ण आशय का वह भाग है जो दोषपूर्ण कृत्य की परिधि से बाहर है। ‘आशय’ को सिद्ध करने का भार अभियोजन पक्ष पर होता है।

(c) दुराशय – ‘दुराशय’ से तात्पर्य – ‘द्वेषपूर्ण’ अथवा ‘आपराधिक आशय’ है| प्राय: कोई भी कार्य तब तक अपराध नहीं माना जाता जब तक वह ‘दुराशय’ से प्रेरित होकर नहीं किया गया हो। ‘दुराशय’ अपराध के गठन के लिये एक अनिवार्य शर्त है।

यह आंग्ल विधि के इस सूत्र पर आधारित है कि Actus non facit reum nisi mens sit rea. ” अर्थात्, “आशय के बिना केवल कार्य किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं बनाता।”

उदाहरण – झाड़ी के पीछे छिपे किसी आदमी को जानवर समझकर शिकारी उस पर गोली चलाता है और उसकी मृत्यु कारित कर देता है। यहाँ अपराध होते हुए भी उसे आपराधिक उत्तरदायित्व से मुक्त रखा जायेगा, क्योंकि उसके मन में कोई दुराशय नहीं था।

लेकिन भारतीय विधि में प्राय: ऐसे प्रत्येक कार्य को ‘अपराध’ माना जाता है जो विधि द्वारा अवैध है, यद्यपि उसके पीछे ‘दुराशय’ रहा हो या नहीं। इसे ‘निरपेक्ष दायित्व’ (Strict liability) के सिद्धान्त के अन्तर्गत रखा गया है। जहाँ किसी संविधि के अन्तर्गत कोई कार्य किया जाना है और वह नहीं किया जाता है तो उसे अपराध मान लिया जायेगा, चाहे उसमें ‘दुराशय’ का पूर्णतया अभाव ही क्यों न रहा हो ।

चूंकि भारतीय विधि में प्रत्येक अपराध के साथ ही उसके आवश्यक तत्वों का उल्लेख किया गया है, इस कारण ‘दुराशय’ का एक तत्व के रूप में अलग से वर्णन नहीं किया गया है।

(iv) क्षति अथवा हानि कारित होना –

अपराध के तत्व में क्षति भी आवश्यक तत्व है| किसी व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य या कार्यलोप जिससे व्यक्ति अथवा जन साधारण को हानि कारित होती है, वह कार्य अपराध माना जाएगा| क्षति या हानि का स्वरूप सामाजिक, वैयक्तिक, मानसिक किसी भी तरह का हो सकता है|

इससे यह प्रमाणित होता है कि, अपराध का गठन करने के लिए क्षति होना आवश्यक है| भारतीय दण्ड संहिता की धारा – 44 में क्षति अथवा हानि को परिभाषित किया गया है, इसके अनुसार –

“क्षति शब्द किसी प्रकार की अपहानी का द्योतक है, जो किसी व्यक्ति के शरीर, मन, ख्याति या सम्पति को अवैध रुप से कारित हुई हो।” क्षति में निम्न तत्व विद्यमान होते है –

(a) किसी व्यक्ति को क्षति कारित करना,

(b) ऐसी क्षति वैध रुप से कारित हुई हो और

(c) ऐसी क्षति शरीर, मन, सम्पति या ख्याति से सम्बन्धित हुई हो।

(v) जानकारी अथवा स्वेच्छा –

‘जानकारी’ अथवा ‘स्वेच्छा’ भी अपराध का एक महत्वपूर्ण तत्व होता है, यदि ऐसा सिद्ध किया जाना उस अपराध के लिये आवश्यक है।

(vi) विधि द्वारा दण्डनीय होना –

ऐसा कार्य जो कानून द्वारा वर्जित है, उसके लिए दण्ड विधि में दण्ड का उपबंध होना चाहिए| किसी कार्य का अपराध होने के लिए उसका विधि द्वारा वर्जित होना ही प्रयाप्त नहीं है अपितु उसके उल्लंघन पर दण्ड का भी प्रावधान होना चाहिए| वस्तुतः दण्ड विधि का यही तत्व आपराधिक विधि को सिविल विधि से अलग पहचान दिलाता है|

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 53 से धारा 75 तक में दण्ड विधि का वर्णन किया गया है, इस संहिता के अनुसार शरीर एंव सम्पति के सम्बन्ध में पीड़ा यानि कष्ट को दण्ड कहा जाता है, जिसकी परिणति समाज द्वारा उस व्यक्ति पर की जाती है जिसे कानून के तहत अपराध का दोषी ठहराया गया हो| मुख्य रूप से दण्ड के पांच प्रयोजन माने गए है, जिन्हें दण्ड के सिद्वान्त भी कहा जाता है|

आशय एवं हेतु में प्रमुख अन्तर

(क) आशय इच्छा की वह कार्यवाही है जो किसी प्रत्यक्ष कार्य को निर्देशित करती है, जबकि हेतु वह संवेग है जो इच्छा की कार्यवाही को प्रोत्साहित करता है।

(ख) आशय निकटस्थ उद्देश्य को इंगित करता है जबकि हेतुक आशय के मूल में स्थित दूरस्थ उद्देश्य को इंगित करता है।

(ग) आशय साधन है जबकि हेतुक साध्य है।

(घ) आशय कार्य का लक्ष्य है जबकि हेतुक उसका स्रोत है।

भारतीय दण्ड संहिता में दुराशय का प्रभाव –

‘दुराशय’ दाण्डिक विधिशास्त्र का एक अंग होने से भी भारतीय दण्ड संहिता में इसका विस्तृत उल्लेख नहीं किया गया है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि भारतीय दण्ड संहिता ने इसे अपराध का तत्व नहीं माना है। वस्तुतः भारतीय दण्ड संहिता में ‘दुराशय’ शब्द के स्थान पर ‘स्वेच्छापूर्वक’ (Voluntarily), ‘आशयपूर्वक’ (Intentionally), ‘कपटपूर्वक’ (Fraudulently) एवं ‘बेईमानीपूर्वक’ (Dishonestly) शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसके अलावा संहिता में ऐसे और भी कई शब्दों का प्रयोग किया गया है जो ‘दुराशय’ के ही प्रतीक हैं,

जैसे — ‘भ्रष्ट रूप से’ (Corruptly), ‘द्वेषभाव से’ (Malignantly), ‘लम्पटता से’ (Wantonly), ‘उतावलेपन से’ (Rashly) ‘उपेक्षा से’ (Negligently) आदि।

हुदा के अनुसार – शब्द ‘द्वेषभाव’ का वही अर्थ है जो शब्द ‘विद्वेष’ (Malicious) का है और शब्द ‘लम्पटता’ का वही अर्थ है जो शब्द ‘ असावधानी’ (Reckless) का है। शब्द ‘उतावलापन’ एवं ‘उपेक्षा’ भी दोषी मस्तिष्क को हो उपदर्शित करते हैं।

प्रसिद्ध विधिवेत्ता एम० सी० सीतलवाद ने अपनी पुस्तक ‘कॉमन लॉ इन इण्डिया’ में इस कथन को स्वीकार किया कि, भारत में दोषी मन का सिद्धान्त अपराधों की विधिक परिभाषाओं में सम्मिलित कर लिया गया है, इसलिये अब अलग से इसके प्रवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं रह गई है।

केस – स्टेट आफ महाराष्ट्र बनाम मेयर हन्स जार्ज (ए.आई.आर. 1965 एस.सी.722)

इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि, जब तक किसी कानून में दुराशय को अपराध का एक आवश्यक तत्व मानने से इन्कार नहीं कर दिया जाता तब तक किसी अभियुक्त को किसी अपराध के लिये दोषी नहीं माना जा सकता, यदि उसका मन ही दोषी न रहा हो।

भारत में ‘छल’ (धोखाधड़ी), आपराधिक न्यास-भंग (आपराधिक विश्वासघात) आदि मामलों में कपटपूर्ण या बेईमानीपूर्ण आशय का होना आवश्यक माना गया है। इसी प्रकार ‘कूट रचना’ (Forgery) के मामलों में मिथ्या दस्तावेज तैयार करना तथा ऐसे दस्तावेज से किसी को क्षति कारित करने का आशय आवश्यक माना गया है। 1

इस प्रकार उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर हम यह जानते हैं कि किसी अपराध के पूर्ण होने की लिए निम्र कथनों को सिद्ध किया जाना आवश्यक है –

(1) यह कि अपराध कम से कम एक व्यक्ति द्वारा कारित किया गया था,

(2) यह कि उस व्यक्ति में अपराध कारित करने की क्षमता थी,

(3) यह कि अपराध किसी दुराशय से प्रेरित होकर किया गया था,

(4) यह कि अपराध किसी निश्चित ध्येय की प्राप्ति के लिये किया

(5) यह कि अपकार्य दुराशय से स्पष्टतया प्रभावित था,

(6) यह कि अपराध समाज के लिये क्षतिकारक था, और

(7) ऐसा अपराध विधि द्वारा दण्डनीय है।

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संदर्भ :- भारतीय दण्ड संहिता (डॉ. बसन्ती लाल बाबेल) 22वां संस्करण,

बुक – अपराध-शास्त्र एंव दण्ड शास्त्र (डॉ. वाई.एस. शर्मा)