हेल्लो दोस्तों, इस लेख में हम अपराधशास्त्र की विचारधारा के बारें में बताया गया है जो कि अपराधशास्त्र एंव प्रतियोगिता परीक्षा का एक प्रमुख भाग है| अपराधशास्त्र की विचारधारा क्या है, यह कितने प्रकार की होती है एंव इसका विकास कैसे हुआ आदि को आसान भाषा में समझाने का प्रयास किया गया है –

परिचय – अपराधशास्त्र की विचारधारा

अपराधशास्त्र के विकास का प्रारम्भ सिसेर बकारिया के समय (सन 1735 से सन 1794) से माना जाता है, देश, काल एंव परिस्थितयों के अनुसार समाज में नए-नए अपराधों का जन्म होता रहा है और उसी क्रम में पिछले काफी वर्षों से अपराधी, अपराधों के कारण, उनका विश्लेषण एंव उनके निवारण के सम्बन्ध में अनेक विद्वान (विचारक) व्याख्या अथवा विचारधाराए प्रतिपादित करते रहे है|

विद्वानों की विचारधाराए अपराध के सम्बन्ध में अलग अलग रही है, लेकिन कुछ विद्वानों की विचारधारा एक समान रही है| इस प्रकार विचारकों द्वारा अपराध के सम्बन्ध में समय समय पर निर्मित की गई व्याख्याओं अथवा विचारधाराओं के आधार पर अपराधशास्त्र की विचारधारा का विकास हुआ है, जिसे अपराधशास्त्र की शाखाएँ अथवा सम्प्रदाय भी कहा जाता है|

अध्ययन की सुविधा हेतु समान विचारधाराओं के विद्वानों को अलग अलग समूह में विभाजित किया गया है, जिसे अपराधशास्त्र की विचारधारा अथवा शाखाएँ भी कहा जाता है तथा प्रत्येक विचारधारा अपराध एंव अपराधिक आचरण के कारणों की विस्तृत विवेचना अपने अपने दृष्टिकोण के अनुसार करती है|

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अपराधशास्त्र की विचारधारा –

अपराधशास्त्र की विचारधारा में ऐसे विषयों को शामिल किया जाता है जिनमें विभिन्न प्रकार के अपराधों और उनके परिप्रेक्ष्य में नियमों और विधियों का अध्ययन किया जाता है।

अपराधशास्त्र शाखाओं में अनेक प्रकार के अपराधों के प्रबंधन, उनके परिप्रेक्ष्य में न्यायिक प्रक्रियाएँ, सजा और सजा की प्रक्रिया, अपराधी और पीड़ित के अधिकार और कर्त्तव्य तथा अपराध और समाज के बीच के नैतिक और सामाजिक पहलुओं का अध्ययन किया जाता है।

उदाहरण के लिए – अपराधशास्त्र की विचारधारा में न्यायशास्त्र शाखा कानूनी प्रक्रियाओं, सुनवाई और किसी अपराध के अधिकारिक प्राप्ति की प्रक्रिया का अध्ययन करती है। यदि समय के साथ साथ समाज में अपराध और उसके प्रभाव बदलते है तो वैज्ञानिक, सामाजिक और कानूनी दृष्टिकोण से नई शाखाएँ भी उत्पन्न हो सकती है।

सदरलैण्ड के अनुसार – अपराधशास्त्र की विचारधारा से तात्पर्य ‘अपराध के कारणों एवं उनके विचार के सम्बन्ध में एक ही विचारधारा के समर्थकों का समूह’ है।

आसान भाषा में कहा जा सकता है कि, अपराध तथा आपराधिकता के बारे में विभिन्न सम्प्रदायों अथवा विचारधाराओं से आशय ऐसे एकमत विचारों के समूह से है जो अपराध के कारणों एवं निवारण के सम्बन्ध में समान विचार रखते है।

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अपराधशास्त्र की विचारधारा के प्रकार

जैसा की हम जानते है कि देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुसार समय-समय पर अपराधशास्त्र की अनेक विचारधाराएँ उत्पन्न होती रही है। अध्ययन की सुविधा हेतु अपराधशास्त्र की निम्नलिखित प्रमुख विचारधाराये अथवा शाखाएँ है, जिनका विस्तृत वर्णन अलग से किया जाएगा –

(i) पूर्व – शास्त्रीय विचारधारा (Pre-Classical School)

अपराधशास्त्र की विचारधारा में यह अपराधशास्त्र की सर्वाधिक पुरानी विचारधारा है जो 17वीं एवं 18वीं सदी के मध्य की है जिसका जनक एक्विनास को माना जाता है। पूर्व – शास्त्रीय विचारधारा मे अपराध का मुख्य कारण भूत-प्रेतों एंव अदृष्टिगोचर अलौकिक शक्तियों को माना गया है|

इस विचारधारा के मतानुसार मानव की आत्मा पवित्र एंव सात्विक है तथा मनुष्य सवभाव से अपराधी नहीं होता है वरन मानव अज्ञात बाध्य शक्ति यानि भूत-प्रेत, शैतान, असुर आदि के नियत्रंण में हो जाते है तब ये बुरी आत्माएं ही मानव से अपराध करवाती है| थॉमस एक्चिनास, हॉब्स, लॉक, ऑगस्ट कॉपटे आदि इस विचारधारा के समर्थक माने जाते है।

भूत-प्रेत, शैतान, असुर आदि बुरी आत्माओं से मुक्ति पाने के लिए हवन, मन्त्र, बलिदान, अग्नि परीक्षा आदि प्रचलित थी और इस समय अपराधों के लिए दण्ड का कोई स्थाई सिद्वांत भी नहीं था| समाज में धर्म की प्रधानता के कारण अपराध और पापकर्म में कोई भेद नहीं माना जाता था|

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(ii) शास्त्रीय विचारधारा (Classical School)

शास्त्रीय विचारधारा का उद्भव 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्व में इंग्लैण्ड में हुआ था जिसका जनक सिसेर बेक्कारिया को माना जाता है। इस विचारधारा के समर्थकों में ब्लेकस्टोन, बेन्थम, रोमिले, राबर्ट पील, फ्यूर बेच आदि विचारकों के नाम प्रमुख है।

इस विचारधारा की मुख्य अवधारणा अथवा केन्द्र बिन्दु मानव की स्वतन्त्र इच्छा है यानि मानव जो कुछ भी करता है वह अपनी स्वतन्त्र इच्छा से करता है। प्रत्येक कार्य में वह अपना हित-अहित, भला-बुरा एवं सुख-दुःख आदि को सोचता है

अर्थात् किसी कार्य से मिलने वाले सुख की मात्रा उसी कार्य से मिलने वाले दुःख से जीतनी अधिक होगी मानव उतनी ही इच्छा से उसको करता है, अपराध भी इसी का परिणाम है यानि यदि किसी कार्य से मानव को सुख मिलता है तो वह उस कार्य को कर बैठता है चाहे वह कार्य आपराधिक ही क्यों न हो। जेरेमी बेन्थम का उपयोगितावादी सिद्धान्त भी इसी के अनुरूप है।

(iii) नवीन-शास्त्रीय विचारधारा (New-Classical School)

इस विचारधारा की उत्पत्ति का प्रमुख कारण शास्त्रीय विचारधारा की कमियों को माना जाता है। जैसा कि हम जानते है की शास्त्रीय विचारधारा में समान अपराध के लिए समान दण्ड व्यवस्था के साथ-साथ यह व्याख्या भी की गई है कि मनुष्य वहीं कार्य करता है जिसमें उसे अधिकतम सुख की प्राप्ति होती है चाहे वह अपराध ही क्यों न हो। यह बात अनेक अपराधशास्त्रियों के गले नहीं उतरी और इसी के परिणामस्वरूप नव-शास्त्रीय विचारधारा का जन्म हुआ।

नवशास्त्रीय विचारधारा के अनुसार – अपराधों का मुख्य कारण व्यक्ति की केवल सुख प्राप्त करने की इच्छा ही नहीं है वरन वह कई बार विवशता अथवा परिस्थितियों के कारण भी अपराध कारित कर बैठता है।

इसलिए समान अपराधों के लिए समान दण्ड की व्यवस्था न्यायसंगत नहीं है। डोनाल्ड और टेफ्ट के मतानुसार दण्ड की मात्रा अपराध के कारणों, परिस्थितियों, अपराधी की आयु, चरित्र, मानसिक दशा आदि को ध्यान में रखते हुए निर्धारित की जानी चाहिए।

इस प्रकार नव शास्त्रीय विचारधारा का सूत्रपात मुख्यतः शास्त्रीय विचारधारा की कमियों को दूर करने के लिए हुआ है। इस विचारधारा के समर्थकों में रोसी, गैराल्ड, जौली आदि के नाम मुख्य है।

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(iv) प्रारूपवादी विचारधारा (Typological School)

इस विचारधारा का उद्भव नव-शास्त्रीय विचारधारा की कमियों के कारण हुआ। इस विचारधारा के अनुसार अपराधों का कारण केवल सुखवादी दर्शन ही नहीं है वरन अपराधी की शारीरिक रचना एवं मानसिक दशा भी है। इनके अनुसार सामान्य मनुष्य की तुलना में अपराधी व्यक्ति की शारीरिक बनावट एवं मानसिक दशा कुछ भिन्न होती है और इस कारण उन्हें पहचाना जा सकता है।

अपराधी व्यक्ति के शरीर की शारीरिक या मानसिक विशेषताए जन्म से या वंशानुगत होती है तथा यही विशेषताए उसे अपराध के लिए उत्प्रेरित करती है| इस सम्प्रदाय के समर्थक अनेक प्रकार के शारीरिक लक्षणों को अपराध का मुख्य कारण मानते है, जिससे इसकी अनेक शाखाएँ विकसित हो गई है, इस विचारधारा की प्रमुख रूप से तीन शाखाएँ है –

– लोम्ब्रोसो या इटैलियन शाखा

– मानसिक परिक्षण शाखा

– मनोविशलेषणात्म्क शाखा

लोम्बोसो, एनरिको फेरी, रेफिले गेरोफलो आदि अपराधशास्त्रियों को इस विचारधारा का प्रबल समर्थक माना गया है। इस विचारधारा को कभी कभी सकारात्मक विचारधारा भी कहा जाता है

(v) समाजशास्त्रीय विचारधारा (Sociological School)

अपराधशास्त्र की विचारधारा में इसे समाजवादी विचारधारा (Socialistic School) के नाम से भी जाना जाता है। फ़्रांस के विधि विशेषज्ञ गैब्रियल डे टार्डे को इस विचाराधारा का जनक माना जाता है, इस विचाराधारा के अनुसार व्यक्ति की विभिन्न सामाजिक परिस्थितियां ही अपराध का कारण होती है,

इस विचारधारा के समर्थक, अपराधों का मुख्य कारण अर्थाभाव, गरीबी एवं आर्थिक विषमता को मानते है। जब अमीर व्यक्ति एवं निर्धन व्यक्ति के मध्य गहराई बढ जाती है और बेकारी एवं बेरोजगारी अपना विकराल रूप धारण कर लेती है तब वर्ग संघर्ष जन्म लेता है और व्यक्ति अपराध कारित करने की ओर अग्रसर हो जाता है।

मार्क्स, एंजिल, बोंगर आदि समाजवादी विचारधारा के प्रबल समर्थक माने जाते है, इनके अनुसार वर्ग संघर्ष का मुख्य कारण पूँजीवादी अर्थव्यवस्था है।

सदरलैण्ड के अनुसार – अपराध जन्मजात नहीं होकर बुरी संगति में रहकर सिखे जाते है, यानि व्यक्ति उसी प्रकार आपराधिक आचरण सीखता है जिस तरह वह बचपन में अन्य बातें सीखता है।

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(vi) वातावरणीय विचारधारा (Geographical and Ecological School)

अपराधशास्त्र की इस विचारधारा को भौगोलिक या परिवेशीय विचारधारा के नाम से भी जाना जाता है| वर्ष 1830 से वर्ष 1880 तक यह विचारधारा प्रगति पर थी और क्वेटलेटख, मॉन्टेस्क्यू, ए एम ग्वैरी, खेरी, एडॉल्फ, लैक्सन आदि अपराधशास्त्री इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक रहे है।

अपराधशास्त्र की इस विचारधारा का आधार भौगोलिक परिस्थितियां है क्योकि यह अपराधों की तलाश अपराधी के शरीर, मस्तिष्क आदि की नहीं कर बाहरी वातावरण मे करती है। इसके अनुसार – जलवायु,  प्राकृतिक साधन, भौगोलिक परिस्थितियाँ आदि अपराध के लिए जिम्मेदारी होती है।

इस विचारधारा की मान्यता है कि अनुकूल भौगोलिक एंव सामाजिक वातावरण में अपराध कम होते है, जबकि इसके प्रतिकूल वातावरण अपराध को प्रोत्साहन देती है। इसी तरह प्राकृतिक साधनों एवं स्रोतों की अधिकता वाले क्षेत्रों में अपराध कम होते है, जबकि अभावग्रस्त क्षेत्रों में अपराध अधिक होते है।

लैकेसन ने विभिन्न महिनों में कारित होने वाले अपराधों का विवेचन किया है और उनके अनुसार व्यक्ति के विरुद्ध अपराध मई एवं जून माह में तथा सम्पत्ति के विरुद्ध अपराध दिसम्बर माह में अधिक होते है।

(vii) विविध कारक विचारधारा (Multi Factor School)

अपराधशास्त्र की विचारधारा में यह विचारधारा वर्तमान में सर्वाधिक प्रचलित विचारधारा है जिसे बहुकारकीय विचारधारा के नाम से भी जाना जाता है। यह विचारधारा अपराध की अत्यन्त उदार व्याख्या करती है। इस विचारधारा के समर्थकों का मानना है कि, अपराधों के एक नहीं बल्कि अनेक कारण होते है और इन सभी कारणों को शामिल किऐ बिना एंव बिना किसी प्रतिवाद के किसी एक सिद्वान्त का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता है।

इनका मत है कि अपराध अनेक परिस्थितियां एंव कारको मानवशास्तीय, भौतिक व सामाजिक के संयोग से बनता है। डॉ. बर्ट ने ऐसे कारको को चार भागों में बांटा है –

(a) प्रमुख अथवा सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारक

(b) मुख्य एंव सहयोगी कारक,

(c) अमुख्य या गौण परिस्थितियां जो अपराध को प्रेरित करती है

(d) ऐसी परिस्थितियां जो उपस्थित रहने पर भी क्रियशील नहीं होती

यह विचारधारा विलियम हीली के बहुकारकवाद के सिद्धान्त से समर्थित है जबकि अलबर्ट कोहेन ने इस विचारधारा की कटु आलोचना की है, इनके अनुसार बहुकारकवादी विद्वान एक कारकवादी सिद्वान्त की आलोचना इसे ठीक प्रकार से न समझने के कारण करते है, लेकिन उनकी आलोचना को अधिक बल नहीं मिला है। अपराधशास्त्र की विचारधारा

(viii) समाजवादी विचारधारा

इस विचारधारा की उत्पत्ति लगभग वर्ष 1850 ई. से मानी जाती है। कार्ल मार्क्स, एंजिल्स, बोंगर को समाजवादी विचारधारा के प्रतिपादक माने जाते है, जिनके मतानुसार अपराध का प्रत्यक्ष सम्बन्ध आर्थिक दशाओं के साथ है यदि आर्थिक दशाऐं मानव के अनुकुल रहे तो अपराध की दर में कमी आऐगी और यदि विपरित रहे तो अपराध की दर में वृद्वि हो जाऐगी

सदरलैण्ड इसे एक वैज्ञानिक सिद्वान्त की संज्ञा देते है क्योंकि यह सिद्वान्त एक सामान्य परिकल्पना से कार्य करके इस तरह डाटा एकतरित करता है कि इसके आधार पर अन्य लोग भी कार्य को दुहरा सके तथा उनके निष्कर्षो की जांच कर सकें | अपराधशास्त्र की विचारधारा

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Reference :- Criminology And Penology (Dr. Y.S. Sharma)