इस आलेख में अपकृत्य विधि के तत्व के साथ साथ बिना हानि के क्षति तथा बिना क्षति के हानि को आसान भाषा में समझाने का प्रयास किया गया है …..
अपकृत्य विधि के तत्व
वर्तमान समय में अपकृत्य विधि एक महत्वपूर्ण विधि के रूप में विकसित हो रही है। पाश्चात्य देश के अलावा शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ हमारे देश में भी लोग अपकृत्य विधि के बारें मै जानने लगे है।
अपकृत्य विधि को पूर्णतया समझने के लिए हमें यह जानना आवश्यक है कि आखिरकार ऐसे कौन से मूलभूत सामान्य तत्व हैं जो अपकृत्यपूर्ण दायित्व को जन्म देते हैं। विधिवेत्ताओं ने अपकृत्य विधि के मुख्य रूप से तीन तत्व माने है, जो निम्नलिखित है –
दोषपूर्ण कृत्य का होना
अपकृत्यपूर्ण दायित्व के लिए सदोष कार्य अथवा दोषपूर्ण कृत्य का होना – इसके अनुसार कोई व्यक्ति किसी कार्य को करने से कारित क्षति के लिये दोषी तभी ठहराया जा सकता है जब उक्त कार्य को न करना उसका दायित्व हो और करना दोष हो।
इसी प्रकार नुकसानी का दायित्व तभी उत्पन्न होगा जब किसी कार्य का करना कर्त्तव्य हो यानि सही हो और न करना दोष हो। कार्य या कार्यलोप (अपकृत्य) कानूनी दृष्टि से अनुचित या सही जरुर होना चाहिये।
अपकृत्यपूर्ण सम्बन्धी दायित्व ऐसे कर्त्तव्य या कार्यो के उल्लंघन से उत्पन्न होते है जो पूर्व से विधि द्वारा निश्चित होते हैं। नैतिक दोष, सामाजिक दोष या राजनीतिक भूल अपकृत्य मै नहीं आते हैं।
उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यक्ति अपनी जाति के लोगों के साथ खान-पान, समारोह में शामिल नहीं होता है तो ऐसी स्थिति में उसके कार्य को नैतिक या सामाजिक दोष ही कहा जायगा, उसके इस कार्य को कानूनी दोष नहीं कहा जाएगा।
इसी प्रकार जो कृत्य या कार्य, कानून की दृष्टि में अनुचित नहीं हैं, वे अपकृत्य नहीं हैं, अपकृत्य विधि में किसी कार्य के अनुचित होने के लिए, किसी कानूनी अधिकार का हनन होना आवश्यक है।
सदोष कार्य (अपकृत्य विधि के तत्व)
सदोष कार्य अथवा लोप से हुई क्षति अथवा हानि – अपकृत्य विधि मै किसी व्यक्ति के कानूनी अधिकारों के अतिलंघन होने पर क्षति होती हो और ऐसा उल्लंघन चाहे नाम मात्र का ही हुआ हो, अपकृत्य कहलाता है।
उदाहरणार्थ के रूप मै किसी व्यक्ति की भूमि में कोई निर्माण कार्य करना जिससे उसके भू-स्वामित्व पर प्रतिकूल असर पड़ता हो, अथवा अपनी ही भूमि पर ऐसा कोई निर्माण कार्य करना जिससे पड़ोसी के प्रकाश तथा धूप पाने के ऐसे अधिकार पर, जो वह बीस वर्ष से उपयोग कर रहा है, बाधा उत्पन्न होती हो, अपकृत्य की श्रेणी मै आता है।
इससे स्पष्ट है की ऐसे किसी कार्य या कार्यलोप से किसी अन्य व्यक्ति के विधिक अधिकारों का हनन होता हो तो वह कार्य या कार्यलोप अपकृत्य होगा अन्यथा नहीं|
विधिक क्षति
विधिक क्षति या नुकसानी का वाद लाने का अधिकार – अपकृत्य विधि के आवश्यक तत्व का तीसरा महत्वपूर्ण तत्व विधिक क्षति या नुकसानी के लिए वादी द्वारा वाद लाने का विधिक अधिकार है| सामण्ड (Salmond) के अनुसार – “अपकृत्य ऐसा कार्य होता है जिससे प्रतिवादी बिना किसी कारण या औचित्य के ही वादी को नुकसान पहुंचाता है।”
अपकृत्य के कानून का मुख्य उद्देश्य यही है कि व्यक्ति समाज में अपने अधिकारों का उपयोग दूसरे व्यक्ति के अधिकारों को ध्यान मै रखते हुए करें, वह ऐसा कोई भी कार्य ना करें जिससे अन्य व्यक्तियों की सम्पत्ति, सुरक्षा और ख्याति को नुकसान पंहुचे|
यदि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के विधिक अधिकारों को नुकसान पंहुचाता है तो यह विधिक क्षति कहलायेगी और ऐसी स्थिति में वादी को प्रतिवादी से आर्थिक प्रतिकर प्राप्त करने का विधिक अधिकार प्राप्त हो जाएगा।
विधिक क्षति को निम्नलिखित दो सूत्रों द्वारा समझा जा सकता है
(i) बिना क्षति के विधिक अधिकार का अतिलंघन (Injuria sine damnum)
इस सिद्धान्त के अनुसार जिस व्यक्ति के कानूनी अधिकार का अतिलंघन हुआ हो, वह नुकसानी के लिये दावा कर सकता है, चाहे उसे वास्तविक क्षति हुई हो या नहीं। कानून, व्यक्ति और समाज की दृष्टि से, व्यक्ति के कुछ अधिकारों को मान्यता देता है। (अपकृत्य विधि के तत्व)
इन अधिकारों को भंग करना स्वयं ही अनुयोज्य (Actionable) होता है। ऐसे मामलों में वादी को यह साबित करना होता है कि उसके किस कानूनी अधिकार का अतिलंघन किया गया है। चाहे उसके अधिकार के अतिलंघन से उसे कोई हानि हुई है या नहीं। अनधिकार प्रवेश, मानहानि आदि इसी प्रकार के स्वतः अनुयोज्य (Actionable per se) अपकृत्य है।
भारत में इस सिद्धान्त का रूप –
भारत में भी इस सिद्धान्त को लागू किया गया है। ऐसे अनेक मामले में यह कहा गया था कि यदि वादी के अधिकार का अतिलंघन होता है और वास्तविक क्षति का कोई प्रमाण नहीं है तो भी आर्थिक नुकसानी के बिना वह डिक्री प्राप्त करने का हकदार है। इस सिद्धान्त के उदाहरण स्वरूप निम्नलिखित वाद हैं, जिनमें भारतीय न्यायालयों द्वारा निर्णय किये गये –
- भिक्खी ओझा बनाम हरख कन्दू तथा अन्य (1809) 9 सी. डब्ल्यू. एन. 89 (डी.बी.)
- काली किशन बनाम जदुलाल मलिक (6 आई. ए. 190 (प्रि.कॉ.)
- अन्दी मूपन बनाम मथुबीरा रेड्डी (1915) 29 म. ला. ज. (डी. वी.)
(ii) विधिक अधिकार के अतिलंघन के बिना क्षति या नुकसान के हानि (Damnum sine injuria)
इसका अर्थ है कि व्यक्ति के विधिक अधिकारों के अतिलंघन/हनन के बिना क्षति| इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति के विधिक अधिकारों का हनन हुए बिना उसे क्षति कारित होती है उस स्थिति मै हुई क्षति के आधार पर वाद नहीं चलाया जा सकता है|
यदि प्रतिवादी के किसी कार्य से वादी को कोई नुकसान होता है तो वह तब तक मुकदमा दायर नहीं कर सकता जब तक की वह यह साबित ना कर दें कि उसके किस विधिक अधिकार का हनन हुआ
इस प्रकार इस सिद्धान्त का तात्पर्य यही है कि कोई क्षति तब तक किसी कार्यवाही का आधार नहीं होती जब तक कि वह उन सदोष कृत्यों की कोटि में नहीं आती, जिनको कानून अपकृत्य मानता है।
जैसे – एक व्यक्ति किसी क्षेत्र में कोई मिल चला रहा है और उसी क्षेत्र मै कोई दूसरा व्यक्ति दूसरी मिल चलाने लगता है तो पहले व्यक्ति को आर्थिक क्षति तो अवश्य होगी, क्योंकि पहले व्यक्ति की मिल की आय कम हो जाएगी किन्तु पहले व्यक्ति को उसके विरुद्ध कोई नुकसानी का वाद लाने का अधिकार प्राप्त नहीं होता है क्योंकि इसमें पहले व्यक्ति के किसी विधिक अधिकार का उलंघन नहीं हुआ है।
सामण्ड ने बिना विधिक अधिकार के अतिलंघन होने से उत्पन्न क्षति के मामलों को निम्न वर्गों में विभाजित किया है
- प्रतिवादी द्वारा अपने अधिकार के प्रयोग से उत्पन्न क्षति, जैसे व्यापार में एक व्यक्ति की स्पर्धा के कारण दूसरे को हानि होना।
- अधिक हानि को रोकने के लिए किये गये कार्य द्वारा हुई क्षति।
- कभी-कभी क्षति बहुत कम या बिल्कुल अनिश्चित होती है या सिद्ध करने में बड़ी कठिनाई होती है, ऐसे मामलों में नुकसानी की कार्यवाही नहीं की जा सकती।
- कभी-कभी क्षति का रूप ऐसा होता है कि एक व्यक्ति को सार्वजनिक क्षति के साथ ही ऐसी क्षति होती है जिसका कारण कोई सार्वजनिक अवरोध ही होता है।
इस सिद्धान्त के अन्तर्गत कुछ प्रमुख वाद इस प्रकार हैं –
- ग्लॉसेस्टर ग्रामर स्कूल (1410 वाई. बी. 11 हेन चौथे, एफ. औ. 47 पी. एल. 21, 22)
- मोगल स्टीमशिप कम्पनी बनाम एम० ग्रेगर (1885) ए. सी. 587
- एक्टर बनाम ब्लनडेल (1848) 12 एम. एण्ड डबल्यु. 324)
- डिक्सन बनाम रायटर टेलीग्राफ कम्पनी (1877 3 सी. पी. डी. 1)
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