इस आलेख में अनुशासन समिति किसे कहते है, इसका गठन कैसे किया जाता है और अधिवक्ता अधिनियम के अधीन अनुशासन समिति को प्रदत्त शक्तियां एंव इसके द्वारा दिए दण्डादेश के विरुद्ध अधिवक्ता को प्राप्त उपचार कोनसे है, का उल्लेख किया गया है|

अनुशासन समिति

अनुशासन समिति से आशय, एक व्यक्ति या व्यक्तियों के ऐसे समूह या संगठन से है, जो किसी शिकायत, पुनरीक्षण या स्वत: संज्ञान पर किसी वकील के वृत्तिक कदाचार से जुड़े मामलों और कार्यवाही की सुनवाई करने के लिए सक्षम है।

इस समिति का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि भारतीय विधिज्ञ परिषद या भारत के किसी राज्य की विधिज्ञ परिषद के सदस्य पेशेवर नैतिकता और मानकों को बनाए रख रहे हैं और उनका पालन कर रहे है|

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अनुशासन समिति का गठन

अधिवक्ताओं के वृतिक अवचार की शिकायतों की जाँच करने तथा दोषी अधिवक्ताओं को वृतिक अवचार के लिए दण्डित किए जाने हेतु अधिवक्ता अधिनियम 1961 में अनुशासन समितियों (Disciplinary Committees) के गठन की व्यवस्था की गई है।

अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 9 राज्य बार काउंसिल (राज्य विधिज्ञ परिषद्) को एक या एक से अधिक अनुशासनात्मक समितियों (अनुशासन समिति) का गठन करने का अधिकार देती है।

अनुशासन समिति का गठन तीन व्यक्तियों से मिलकर होता है। इनमें से दो व्यक्तियों की नियुक्ति अपने सदस्यों में से निर्वाचित व्यक्तियों से की जाती है। एक का चयन उन अधिवक्ताओं में से किया जाएगा जिनके पास पेशे में 10 साल से अधिक का अनुभव है और जो परिषद् का सदस्य नहीं है। अनुशासन समिति के तीनो सदस्यों में से ज्येष्ठत्तम अधिवक्ता उसका अध्यक्ष होता है।

इस प्रकार अनुशासन समिति का गठन निम्नाकित से मिलकर होता है –

(i) दो व्यक्ति विधिज्ञ परिषद् के सदस्य

(ii) एक व्यक्ति सहयोजित सदस्य

इस समिति को अधिवक्ताओं के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही करने की अधिकारिता दी गई है तथा धारा 39 क के अनुसार यदि ऐसी अनुशासन समिति की अधिकारिता को समाप्त कर उसके स्थान पर कोई उत्तरवर्ती समिति बनती है तो ऐसे उतरवर्ती समिति द्वारा जाँच को उसी प्रक्रम पर जारी रखा जाएगा जिस प्रक्रम पर वह पूर्ववर्ती समिति द्वारा छोड़ी गई थी।

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अनुशासन समिति की शक्तियां

अधिवक्ता अधिनियम की धारा 42 के तहत अधिवक्ताओं के विरुद्ध वृतिक अवचार के मामले की जाँच करने तथा अनुशासनिक कार्यवाहियों का समुचित रूप से निपटारा करने के लिए अनुशासन समितियों को निम्नांकित शक्तियाँ प्रदान की गई हैं –

(1) सिविल न्यायालय की शक्तियाँ –

विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति को निम्नलिखित बातों के सम्बन्ध में वही शक्तियाँ प्राप्त होती है जो सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अधीन सिविल न्यायालय में निहित हैं, यानि –

(क) किसी व्यक्ति को समन करना, उसे हाजिर कराना तथा शपथ पर उसकी परीक्षा करना,

(ख) किसी दस्तावेज को प्रकट करने और उन्हें पेश करने की अपेक्षा करना,

(ग) शपथ-पत्रों पर साक्ष्य लेना,

(घ) किसी न्यायालय या कार्यालय से किसी लोक-अभिलेख की या उसकी प्रतिलिपियों की अपेक्षा करना,

(ङ) साक्षियों या दस्तावेजों की परीक्षा के लिए कमीशन (Commission) निकालना, तथा

(च) अन्य कोई बात जो विहित की जाए।

अधिनियम की धारा 42 (1) के अनुसार अनुशासन समिति साक्ष्य के लिए किसी न्यायालय के पीठासीन अधिकारी या राजस्व न्यायालय के किसी अधिकारी को समन केवल उच्च न्यायालय अथवा राज्य सरकार, यथास्थिति, की पूर्व-मंजूरी से ही जारी कर सकती है|

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(2) सिविल न्यायालय समझा जाना –

अधिवक्ता अधिनियम की धारा 42 (2) के अन्तर्गत विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति के समक्ष की गई सभी कार्यवाहियों को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 193 तथा धारा 228 के अर्थान्तर्गत न्यायिक कार्यवाहियाँ (Judicial proceedings) माना गया है।

इसी तरह अनुशासन समितियों को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 345, 346 व 349 के प्रयोजनों के लिए सिविल न्यायालय (Civil Court) समझा गया है।

(3) समन तामील की शक्तियाँ –

जहाँ अनुशासन समिति को धारा 42 (1) के अधीन किसी कार्य के लिए साक्षी की हाजिरी या दस्तावेजों की अपेक्षा है, वहाँ अनुशासन समिति द्वारा उक्त कार्यों के लिए समन या आदेशिका या कमीशन उस राज्य क्षेत्र के सिविल न्यायालय को तामील हेतु भेजने का अधिकार होगा जिस पर इस अधिनियम का विस्तार है।

ऐसा न्यायालय, ऐसे समन या आदेशिका की उसी तरह तामील कराएगा मानों वह उसी के द्वारा जारी समन या आदेशिका हो।

(4) आदेश पारित करने की शक्तियाँ –

अनुशासन समिति द्वारा समय-समय पर सुनवाई की तिथियाँ नियत की जाएँगी और ऐसी तिथियों को कार्यवाहियाँ चालू रहेगी चाहे उस तिथि को अध्यक्ष या कोई अन्य सदस्य अनुपस्थिति ही क्यों न हो। ऐसी कार्यवाहियाँ मात्र अध्यक्ष या अन्य सदस्य की अनुपस्थिति के कारण अविधिमान्य नहीं समझी जाएँगी।

लेकिन अनुशासन समिति द्वारा अन्तिम आदेश तब तक पारित नहीं किया जाएगा जब तक अनुशासन समिति का अध्यक्ष एवं अन्य सदस्य उपस्थित न हों।

जहाँ किसी कार्यवाही में, अनुशासन समिति के अध्यक्ष और सदस्यों की राय नहीं बंटी हुई हो या उनके मध्य बहुसंख्यक राय नहीं बनी हो या अन्यथा कोई अन्तिम आदेश पारित नहीं किया जा सकता हो, तब वह मामला अपनी राय सहित सम्बन्धित विधिज्ञ परिषद् के अध्यक्ष के समक्ष भेजा जाता है और

यदि ऐसा अध्यक्ष अनुशासन समिति के अध्यक्ष या सदस्य के रूप में कार्य कर रहा है तो उपाध्यक्ष के समक्ष रखा जाएगा। ऐसी स्थिति में समुचित सुनवाई के पश्चात् अध्यक्ष या उपाध्यक्ष द्वारा राय दी जाएगी और उस राय के अनुरूप अनुशासन समिति द्वारा अन्तिम आदेश पारित किया जाएगा।

(5) कार्यवाहियों का खर्चा –

अधिनियम की धारा 43 के तहत विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति को अपने समक्ष की कार्यवाहियों के खर्चों के बारे में आदेश देने की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।

ऐसे आदेशों का निष्पादन वैसे ही किया जाएगा जैसा भारतीय विधिज्ञ परिषद् की दशा में उच्चतम न्यायालय एवं राज्य विधिज्ञ परिषद् की दशा में उच्च न्यायालय के आदेशों का किया जाता है।

(6) पुनर्विलोकन की शक्तियाँ –

अधिनियम की धारा 44 के अधीन विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति को अपने द्वारा पारित किसी आदेश का स्वप्रेरणा से या अन्यथा पुनर्विलोकन (Review) करने का अधिकार है।

ऐसा पुनर्विलोकन आदेश पारित करने की तिथि से 60 दिन के भीतर किया जा सकता है तथा राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति का पुनर्विलोकन का आदेश तब तक प्रभावी नहीं होगा, जब तक कि भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा उसका अनुमोदन नहीं कर दिया जाता।

पुर्विलोकन के सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, वृतिक अवचार के मामलों में विधिज्ञ परिषद् को पुनर्विलोकन में अत्यधिक उदारता नहीं दिखानी चाहिए।

इस तरह अधिवक्ताओं के विरुद्ध वृतिक अवचार/कदाचार के मामलों में जाँच करने के लिए अनुशासन समितियों को अधिवक्ता अधिनियम के अन्तर्गत महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।

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दण्डादेश के विरुद्ध अधिवक्ताओं को प्राप्त उपचार –

विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा दिए गए दण्डादेश के विरुद्ध अधिवक्ता को अनेक तरह के उपचार भी प्राप्त होते है| अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 37, 38, 40 एवं 44 में विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा दिए गए दण्डादेश के विरुद्ध उपचारों के बारे में प्रावधान किया गया है, जो निम्नलिखित हैं –

(1) भारतीय विधिज्ञ परिषद् को अपील –

अधिनियम की धारा 37 में राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति या महाधिवक्ता द्वारा धारा 35 के अन्तर्गत दिए गए आदेश के विरुद्ध भारतीय विधिज्ञ परिषद् में अपील किए जाने के बारे में प्रावधान किया गया है।

इसके अनुसार जहाँ कोई व्यक्ति धारा 35 के अन्तर्गत दिए गए राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति या राज्य के महाधिवक्ता के आदेश से व्यथित (Aggrieved) है, तब वह व्यक्ति ऐसे आदेश के विरुद्ध 60 दिन में भारतीय विधिज्ञ परिषद् के समक्ष अपील कर सकेगा। अवधि की संगणना आदेश की संसूचना की तारीख से की जाएगी।

यदि किसी मामले में अपील 60 दिन की अवधि के बाद पेश की जाती है और विलम्ब माफी का प्रार्थना पत्र भी पेश नहीं किया जाता है वहां भारतीय विधिज्ञ परिषद् को ऐसी अपील को निरस्त करने का अधिकार होगा।

अपील की सुनवाई भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा की जाएगी और वह ऐसा आदेश पारित कर सकेगी, जैसा वह ठीक समझे। उसके द्वारा राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा अधिनिर्णित दण्ड को परिवर्तित भी किया जा सकेगा।

राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति के आदेश को भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा तब तक परिवर्तित नहीं किया जाएगा जब तक कि व्यथित व्यक्ति को सुनवाई का अवसर प्रदान नहीं कर दिया जाता।

(2) उच्चतम न्यायालय को अपील –

अधिनियम की धारा 38 व्यथित व्यक्ति को उच्चतम न्यायालय में अपील करने का अधिकार देती है।

इस धारा के अनुसार व्यथित व्यक्ति भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा धारा 36 या धारा 37 के अधीन या भारत के महान्यायवादी या सम्बन्धित राज्य के महाधिवक्ता द्वारा पारित आदेश की संसूचना की तारीख से 60 दिन की अवधि के अन्दर उच्चतम न्यायालय में ऐसे आदेश के विरुद्ध अपील कर सकता है।

अपील में उच्चतम न्यायालय द्वारा ऐसा आदेश पारित किया जा सकेगा जैसा वह ठीक समझे। उसके द्वारा अनुशासन समिति के अधिनिर्णित दण्ड में परिवर्तन भी किया जा सकेगा, लेकिन सम्बन्धित व्यक्ति के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला आदेश ऐसे व्यक्ति को सुनवाई का अवसर दिए बिना पारित नहीं किया जा सकेगा।

(3) आदेश का रोका जाना –

अधिनियम की धारा 40 में धारा 37 या धारा 38 के अधीन की गई अपील के दौरान यथास्थिति राज्य विधिज्ञ परिषद् या भारतीय विधिज्ञ परिषद् के आदेश की क्रियान्विति को अपील के निस्तारण तक रोके रखने के बारे में प्रावधान किया गया है।

इसके अनुसार राज्य विधिज्ञ परिषद् के आदेश की क्रियान्विति को भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा और भारतीय विधिज्ञ परिषद् के आदेश को उच्चतम न्यायालय द्वारा रोकने का शर्त सहित या शर्त रहित आदेश दिया जा सकेगा।

(4) पुनर्विलोकन –

अधिनियम की धारा 44 में विधिज्ञ परिषदों की पुनर्विलोकन की शक्तियों का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार राज्य विधिज्ञ परिषद् एवं भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा स्वप्रेरणा से या अन्यथा अपने द्वारा पारित आदेश का आदेश पारित किए जाने की तारीख से 60 दिन के भीतर पुनर्विलोकन (Review) किया जा सकेगा।

वस्तुतः पुनर्विलोकन का उद्देश्य दोषी व्यक्ति को राहत पहुँचाने का होता है। लेकिन उच्चतम न्यायालय द्वारा सार्दुल सिंह बनाम प्रीतम के मामले में कहा गया है कि, गम्भीर वृतिक अवचार के मामलों में विधिज्ञ परिषद् को पुनर्विलोकन में अत्यधिक उदारता नहीं दिखानी चाहिए। सिंह (ए.आई. आर. 1999 एस. सी. 1704)

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