हेल्लो दोस्तों, इस आलेख में कानून के अन्तर्गत अधिवक्ता के निषिद्ध कार्य कोनसे हैं | Prohibited work for advocates under law का आसान शब्दों में उल्लेख किया गया है, यदि आप वकील बनना चाहते है तब आपके लिए यह आलेख काफी महत्वपूर्ण है

अधिवक्ता के निषिद्ध कार्य

अधिवक्ताओं को न्यायालय का अधिकारी माना जाता है तथा वकालत (विधि व्यवसाय) को पवित्र पेशा माना जाता है जिसे वकील (अधिवक्ता) सेवा भाव के उद्देश्य से करते है| उच्चतम न्यायालय द्वारा यह मत व्यक्त किया गया है कि “न्याय प्रशासन एक प्रवाह है, इसे स्वच्छ, शुद्ध एवं प्रदूषणमुक्त रखा जाना न्याय के लिए आवश्यक है।

यह बार एवं बैंच दोनों का यह दायित्व बनता है कि वे न्याय प्रशासन की पवित्रता को बनाये रखें तथा माननीय उच्चतम न्यायालय अधिवक्ताओं से ऐसे आचरण की अपेक्षा करता है जो न्यायोचित है, यह मत न्यायिक अधिकारियों एवं अधिवक्ताओं पर समान रूप से लागू होती है।

अधिवक्ताओं को ऐसा आचरण करना चाहिए कि, कोई भी उनकी सत्यनिष्ठा पर कोई अँगुली ना उठा सके| भारत के उच्चतम न्यायालय ने अपने एक प्रकरण में अधिवक्ताओं के लिए प्रतिबंधित कार्य निर्धारित किये गए हैं।

अधिवक्ताओं की अपनी एक ‘आचार संहिता’ (Code of Conduct) है। जिसमे कई कार्य ऐसे हैं जो उनके द्वारा किये जाने होते है और कई कार्य ऐसे हैं जिनका किया जाना अधिवक्ताओं के लिए प्रतिबंधित है।

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विधि के अधीन अधिवक्ता के निषिद्ध कार्य

यहाँ मुख्य मुख्य विधि के अधीन अधिवक्ता के निषिद्ध कार्य माननीय न्यायालय के निर्णयों सहित बताये गए हैं –

(1) निर्धारित योग्यता के बिना वकालत न करना –

अधिवक्ता के निषिद्ध कार्य में पहला बिंदु अधिवक्ताओं का निर्धारित योग्यता धारण किए बिना वकालत करना हैं। निर्धारित योग्यता से तात्पर्य अधिवक्ता का मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय से विधि स्नातक होने के साथ उसका नाम अधिवक्ताओं की नामावली में दर्ज होना है और उसकी आयु 21 वर्ष पूर्ण होनी चाहिए|

यदि कोई व्यक्ति उपरोक्त योग्यता के बिना विधि व्यवसाय करता है तो वह, अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 45 के अन्तर्गत दण्डनीय होगा| विधि स्नातक की उपाधि एवं सनद् धारण किए बिना वकालत प्रारम्भ करने के सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय द्वारा एक व्यक्ति को छः माह की अवधि के कारावास एवं 5000 – रुपये के जुर्माने से दण्डित किया गया।

राजेन्द्र सिंह बनाम डॉ. सुरेन्द्र सिंह  के प्रकरण में न्यायालय ने, निर्धारित शैक्षणिक योग्यता एवं सनद् धारण किए बिना विधि व्यवसाय प्रारम्भ करना अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 45 के अन्तर्गत दण्डनीय अपराध माना है। (1992 ब्रि लॉ. ज. 3749 मध्य प्रदेश)

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(2) वकालत के साथ कोई अन्य व्यवसाय न करना –

अधिवक्ता के निषिद्ध कार्य में यह दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु है, इसके अनुसार अधिवक्ता एक समय में केवल एक ही व्यवसाय (कार्य) कर सकता है यानि वह विधि व्यवसाय के साथ अन्य कोई व्यवसाय नहीं कर सकता। एक व्यक्ति जो टैक्सी का व्यवसाय करता है वह उस टैक्सी व्यवसाय के साथ-साथ विधि व्यवसाय नहीं कर सकता है।

इसी प्रकार न्यायालय ने एस. टी. डी. बूथ के साथ विधि व्यवसाय करना एवं पेट्रोलियम उत्पाद के व्यवसाय के साथ विधि व्यवसाय करने को अधिवक्ता के लिए निषिद्ध (Prohibited) कार्य माना है।

इस सम्बन्ध में डॉ. हनीराज एल. चुलानी बनाम बार कौंसिल ऑफ महाराष्ट्र का महत्वपूर्ण प्रकरण है,  इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, विधि व्यवसाय एक पूर्णकालिक व्यवसाय है।

अधिवक्ता को अपने पक्षकार को पर्याप्त समय देना होता है, उसे शान्ति एवं धैर्य से सुनना होता है तथा उसके साथ न्याय करना होता है।

यह सब तभी सम्भव हो सकता है जब अधिवक्ता अपनी वकालत के साथ अन्य कोई व्यवसाय नहीं करता हो। इस प्रकरण में अपीलार्थी जो डॉक्टर था व्पने चिकित्सा व्यवसाय के साथ-साथ विधि व्यवसाय भी करना चाहता था जिसकी बार कौंसिल द्वारा इजाजत नहीं दी गई। (ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 2076)

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(3) पक्षकारों को गलत राय नहीं देना –

अधिवक्ता का यह कर्तव्य है कि वह अपने पक्षकारों को कभी भी गलत राय न दें और न उन्हें भ्रम में ना डाले। पक्षकारों को गलत राय देना निषिद्ध (Prohibited) है।

यदि किसी मामले में पक्षकार की हार भी हो जाती है तो अधिवक्ता को चाहिए की वह उसे दूसरी राय देने की बजाय पक्षकार को अपील, पुनरीक्षण, पुनर्विलोकन आदि करने की राय देनी चाहिए।

इसी तरह यदि पक्षकार का मामला कमजोर है तो उसे वैसी राय दी जानी चाहिए। अपने स्वार्थ के कारण पक्षकार को गुमराह करना उचित नहीं माना गया है। अधिवक्ता द्वारा पक्षकार को गलत राय दिया जाना वृतिक कदाचार (Professional misconduct) माना गया है।”

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(4) विपक्षी पक्षकार के साथ दुरभिसंधि न करना –

अधिवक्ता का यह कर्तव्य है कि वह अपने पक्षकार के प्रति निष्ठावान एंव ईमानदार बना रहे, उसके साथ विश्वासघात नहीं करे। यह सभी जानते है कि अधिवक्ता एवं पक्षकार के बीच वैश्वासिक सम्बन्ध होते हैं।

अधिवक्ता एवं पक्षकार के मध्य विश्वास की यह डोर टूटे नहीं, इसके लिए यह आवश्यक है कि अधिवक्ता विपक्षी पक्षकार के साथ मिले नहीं अर्थात् अथवा साँठ-गाँठ (Collusion) नहीं करें। जैसे –

(i) विरोधी पक्ष की पैरवी नहीं करें और ना ही विरोधी पक्ष को मामले में कोई राय दें

(ii) विरोधी पक्ष से किसी भी तरह का शुल्क उपहार या भेंट स्वरूप ग्रहण ना करे।

(5) अन्य अधिवक्ता के कार्यों में हस्तक्षेप ना करें –

अधिवक्ता अपने पक्षकार के मामले में पैरवी तक ही सीमित रहे। उसे अन्य अधिवक्ता के मामले में एवं कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा  कार्य रना वृतिक कदाचार में शामिल है।

इस सम्बन्ध में अभय प्रकाश सहाय बनाम हाईकोर्ट, पटना का प्रकरण महत्वपूर्ण है| इस प्रकरण में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, आज यह प्रचलन चल पड़ा है कि अनेक अधिवक्ता एक ही पक्षकार की ओर से उच्च न्यायालय एवं अधीनस्थ न्यायालयों में पैरवी कर लेते हैं।

जिससे यह पता नहीं चलता है कि वास्तव में किसी पक्षकार का अधिवक्ता कौन है इससे भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है। इसलिए अधिवक्ताओं को केवल अपने पक्षकारों के मामलों में ही पैरवी करनी चाहिए। अन्य मामलों में ना तो उपस्थिति देनी चाहिए और ना ही पैरवी करनी चाहिए। (ए.आई. आर. 1998 पटना 75)

(6) वादग्रस्त सम्पत्ति से संव्यवहार नहीं करना –

अधिवक्ता के लिए वादग्रस्त सम्पत्ति से संव्यवहार करना निषिद्ध है अर्थात् वह न तो वादग्रस्त सम्पत्ति को अपने लिए खरीद सकता है और न ही उसका अन्यथा अन्तरण (Transfer) कर सकता है। ऐसा करना वृतिक कदाचार के क्षेत्र में आता है।

महत्वपूर्ण प्रकरण – पी. डी. गुप्ता बनाम राममूर्ति (ए.आई.आर. 1998 एस.सी. 283)

इस प्रकरण में माननीय न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि, “अधिवक्ता व पक्षकार के मध्य वैश्वासिक सम्बन्ध होते हैं। पक्षकार सामान्यतः अपने अधिवक्ता के प्रभाव में रहते हैं। जिस कारण अधिवक्ता का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह अपने पक्षकार पर असम्यक् असर (Undue influence) का प्रयोग न करें।

अधिवक्ता अपने पक्षकार की सम्पत्ति को नहीं ख़रीदे और ना ही उसे अन्यथा भारग्रस्त करें। इस मामले में अपीलार्थी (पी. डी. गुप्ता) ने अपने पक्षकार की वादग्रस्त सम्पत्ति को खरीद कर मामले में उलझन पैदा कर दी थी। जिस पर भारतीय विधिज्ञ परिषद् (Bar council of India) द्वारा अपीलार्थी की सनद् को एक वर्ष के लिए निलम्बित कर दिया गया।

(7) रिश्वत आदि नहीं लेना –

अधिवक्ता को किसी भी मामले में न्यायाधीश, पेशकर आदि के नाम पर पक्षकारों से रिश्वत, उपहार आदि नहीं लेने चाहिए। अपने मामले में जीत हासिल करने के नाम पर न्यायाधीश, पेशकर, पुलिस अधिकारी आदि को रिश्वत देने के बहाने पक्षकार से रूपए वसूल करना वृतिक कदाचार में आता है।

महत्वपूर्ण केस – पुरुषोत्तम एकनाथ निमाड़े बनाम डी.एन. महाजन (ए.आई.आर. 1999 एस. सी. 2142)

इस मामले में माननीय न्यायालय द्वारा कहा गया है कि, न्यायाधीश आदि के नाम पर पक्षकारों से रिश्वत आदि लेना वृतिक कदाचार है और न्यायालय का अवमान भी इसलिए अधिवक्ताओं को ऐसे कार्यों से बचना चाहिए। यदि किसी अधिवक्ता द्वारा ऐसा कोई कार्य किया जाता है तो उसके विरुद्ध कदाचार की कार्यवाही की जा सकती है।

(8) हड़ताल, बन्द आदि में भाग नहीं लेना –

अधिवक्ताओं के लिए हड़ताल, बन्द आदि में भाग लेना निषिद्ध है उनको हड़ताल, बन्द आदि से बचना चाहिए। हड़ताल एवं बन्द से पक्षकारों के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हड़ताल एवं बन्द के दिनों में पक्षकारों की ओर से न तो उपस्थिति दी जा सकती है और न ही पैरवी की जा सकती है। इस कारण यह प्रवृत्ति पक्षकारों के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध होती है।

न्यायपालिका स्वतंत्र अंग है जो बिना किसी भय, धमकी व उत्पीड़न के काम करने के लिए कृतसंकल्प है। यदि अधिवक्ता किसी अवैध हड़ताल, बन्द अथवा बहिष्कार द्वारा न्यायालयों के कामकाज को ठप्प करने का प्रयास करते है तो उनका यह कृत्य न्यायालय का अवमान है।

महत्वपूर्ण केस – हरीश उप्पल बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (ए. आई, आर 2003 एस. सी. 739)

इस मामले में न्यायालय ने कहा है कि, “अधिवक्ताओं को हड़ताल पर जाने या न्यायालयों का बहिष्कार करने का कोई अधिकार नहीं है। न्यायालय ऐसे मामलों में स्थगन दें, यह आवश्यक नहीं है। यदि अधिवक्ता हड़ताल के कारण न्यायालय में उपस्थिति नहीं देता हैं तो उन पर खर्चा अधिरोपित किया जा सकता है।

जैसा की अधिवक्ता को न्यायालय का अधिकारी माना जाता है एंव समाज में उसका अपना विशिष्ट स्थान है। अधिवक्ता का कर्तव्य है कि वह अपने पक्षकारों के प्रति निष्ठावान रहे तथा मामले की समुचित पैरवी करें। न्यायालय में हड़ताल, बन्द, बहिष्कार आदि करने से मामलों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, इसलिए अधिवक्ता को हड़ताल आदि से बचना चाहिए।

हड़ताल, बन्द, बहिष्कार आदि अधिवक्ताओं के संवैधानिक अधिकार नहीं है| राजेन्द्र सिंह बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (1993 क्रि. लॉ. ज. 1968 पंजाब एण्ड हरियाणा) तथा स्टेट ऑफ हरियाणा बनाम राय साहब (1993 क्रि. लॉ. ज. 636 पंजाब एण्ड हरियाणा) के मामलों में न्यायालय ने कहा गया है कि, अधिवक्ताओं को अनावश्यक हड़ताल आदि की प्रवृत्तियों से बचना चाहिए। अधिवक्ता के निषिद्ध कार्य

(9) पैरवी से हट जाना –

यदि अधिवक्ता किसी मामले में किसी पक्षकार का साक्षी बन जाता है तो उसे स्वेच्छा से उस मामले में पैरवी से हट जाना चाहिए यानि उसमें उसे पक्षकार की और से न्यायालय में उपस्थित नहीं होना चाहिए अथार्त पैरवी नहीं करनी चाहिए। अधिवक्ता के निषिद्ध कार्य

इस प्रकार उपरोक्त अधिवक्ता के निषिद्ध कार्य है। इसी तरह के और भी अन्य कार्य हो सकते हैं जिनसे अधिवक्ताओं को बचना चाहिए।

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