हेल्लो दोस्तों, इस आलेख में अधिवक्ता के कर्त्तव्य यानि एक अधिवक्ता के न्यायालयों, पक्षकारों, साथी अधिवक्ताओं तथा जनता के प्रति क्या-क्या कर्त्तव्य होते है उनका संक्षेप में विवेचन किया गया है, यहाँ अधिवक्ता के कर्त्तव्य को एक साथ बताया गया है
अधिवक्ता के कर्त्तव्य
डॉ. हनीराज एल. चुलानी बनाम बार कौंसिल ऑफ महाराष्ट्र (ए.आई.आर. 1996 एस. सी. 2076) के मामले में विधि व्यवसाय को एक पवित्र व्यवसाय माना गया है। इसमें प्रवेश करने वाले व्यक्ति को समर्पित भाव से कार्य करना होता है तथा अधिवक्ताओं से यह आशा की जाती है कि, वे अपने पक्षकारों के साथ न्याय करें, उनसे अच्छी तरह चर्चा एवं विचार- विमर्श करें, उन्हें सुने तथा मजबूती से उनके पक्ष को न्यायालय के सामने रखें।
और यह सब तभी सम्भव है जब अधिवक्ता यथोचित परिश्रम करें, शांति एवं धैरूपूर्वक पक्षकारों से संव्यवहार करें तथा अपने व्यवसाय के प्रति निष्ठावान रहते हुए समर्पण भाव से कार्य करें। उच्चतम न्यायालय के इन विचारों से अधिवक्ता के कर्त्तव्य स्पष्ट हो जाते हैं। अधिवक्ता के न्यायालयों, पक्षकारों, साथी अधिवक्ताओं एवं जनता के प्रति कुछ कर्तव्य हैं, यथा-
एक अधिवक्ता के कर्त्तव्य निम्नलिखित है –
यहाँ एक अधिवक्ता के न्यायालयों, पक्षकारों, साथी अधिवक्ताओं तथा जनता के प्रति कर्त्तव्यों का संक्षेप में उल्लेख किया गया है|
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(1) निष्ठापूर्वक मामले की पैरवी करना
अधिवक्ता के कर्त्तव्य में उसका सबसे पहला कर्तव्य अपने पक्षकार के मामले की निष्ठापूर्वक पैरवी करना है। उसका प्रयास यह रहे कि मामले में उसके पक्षकार की विजय हो। वह मामले की पैरवी में तनिक मात्र भी लापरवाही एवं अनवधानता नहीं बरते। यदि कोई अधिवक्ता पैरवी में लापरवाही बरतता है तो उसके विरुद्ध उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के अधीन कार्यवाही की जा सकती है।
केस – मोतीलाल बनाम पूनमपुरी (ए.आई.आर. 2000 राजस्थान 65)
इस मामले में न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि “एक बार किसी पक्षकार की ओर से वकालतनामा पेश कर दिए जाने पर वह मामले के अन्तिम निस्तारण तक अपने पक्षकार का अधिवक्ता बना रहता है, बशर्ते कि वह न्यायालय की अनुज्ञा से अपना वकालतनामा वापस न ले ले। अपने पक्षकार के मामले की आरम्भ से अन्त तक पैरवी करना उसका कर्तव्य है।”
(2) पक्षकार की ओर से उपस्थिति देना
अधिवक्ता के कर्त्तव्य में अधिवक्ता का दूसरा महत्त्वपूर्ण कर्तव्य अपने पक्षकार की ओर से न्यायालय में यथासमय उपस्थिति देना है। यदि किसी रोज पक्षकार स्वयं उपस्थित नहीं है तो अधिवक्ता का दायित्व है कि वह उसकी ओर से न्यायालय में हाजरी माफी का प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत करें।
इस कर्तव्य के निर्वहन में चूक किए जाने पर मामला या तो खारिज हो सकता है या उसमें एकतरफा (ex-party) कार्यवाही की जा सकती है| इस कारण अधिवक्ता से यह अपेक्षा की जाती है कि, वह आपराधिक मामलों में दिन-प्रतिदिन (सुनवाई के रोज) न्यायालय में आवश्यक रूप से उपस्थित रहे।
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(3) अनावश्यक शुल्क वसूल नहीं करना
अधिवक्ता के कर्त्तव्य में यह भी शामिल है कि वे पक्षकारों से अनावश्यक शुल्क वसूल नहीं करें अर्थात् वही शुल्क लें जो पक्षकारों के साथ तय हुआ है और विधिनुसार है। शुल्क के पीछे न तो वह पक्षकारों को तंग करे और न पैरवी में शिथिलता बरते।..
केस – न्यू इण्डिया एश्योरेंस कं. लि. बनाम ए. के. सक्सेना (ए.आई.आर. 2004 एस. सी. 311)
इस प्रकरण में तो यहाँ तक कहा गया है कि “यदि किसी पक्षकार द्वारा शुल्क का संदाय नहीं किया जाता है तो अधिवक्ता द्वारा उसकी वसूली के लिए कार्यवाही की जा सकती है, लेकिन शुल्क के बदले में पक्षकारों की पत्रावलियों को नहीं रोका जा सकता। अधिवक्ता का पक्षकारों की पत्रावलियों पर कोई धारणाधिकार (lien) नहीं होता है।”
(4) पक्षकारों की राशि का दुर्विनियोग नहीं करना
अधिवक्ताओं का यह दायित्व है कि वे अपने पक्षकारों की राशि का दुर्विनियोग (Misappropriation) नहीं करें अर्थात् उसे अपने पास रोककर नहीं रखें। यदि पक्षकार द्वारा प्रदत्त कोई राशि न्यायालय में जमा करानी है तो उसे यथासमय जमा करा दें और यदि पक्षकारों को देने के लिए कोई राशि प्राप्त होती है तो वह पक्षकार को दे दे।
केस – बार कौंसिल ऑफ आन्ध्र प्रदेश बनाम के. सत्यनारायण (ए.आई. आर. 2003 एस. सी. 175)
इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि “अपने पक्षकारों की राशि का अधिवक्ता द्वारा दुर्विनियोग किया जाना गम्भीर कदाचार है। ऐसे अधिवक्ता का नाम अधिवक्ताओं की नामावली से हटाया जा सकता है।”
केस – हरीश चन्द्र तिवारी बनाम बैजू (ए.आई.आर. 2002 एस. सी. 548)
इस मामले में एक अधिवक्ता भूमि-अवाप्ति के मामले में पक्षकार की ओर से नियुक्त था। उसने पक्षकार की ओर से न्यायालय से प्रतिकर (Compensation) की राशि उठा ली, लेकिन वह पक्षकार को नहीं लौटाई। उस अधिवक्ता का नाम भी अधिवक्ताओं की नामावली से हटाने का निर्देश दिया गया।
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(3) पक्षकारों की सम्पत्ति से संव्यवहार नहीं करना
अधिवक्ताओं का यह भी कर्तव्य है कि वे अपने पक्षकारों की सम्पत्ति के साथ किसी प्रकार का संव्यवहार न करें अर्थात् उसका क्रय-विक्रय आदि नहीं करें।
रायची. डी. गुप्ता बनाम राममूर्ति के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि” अधिवक्ताओं को अपने पक्षकारों की सम्पत्ति के साथ संव्यवहार नहीं करना चाहिए। यदि कोई अधिवक्ता वादग्रस्त सम्पत्ति को अपने लाभ के लिए खरीद लेता है तो उसे कदाचार (Misconduct) का दोषी माना जाएगा और उसके विरुद्ध अधिवक्ता अधिनियम के अधीन कार्यवाही की जा सकेगी। (ए.आई.आर. 1998 एस. सी. 283)
(6) अन्य कोई व्यवसाय नहीं करना
विधि व्यवसाय एक पूर्णकालिक व्यवसाय है और यहाँ कारण है कि अधिवक्ता द्वारा विधि व्यवसाय के अलावा अन्य कोई व्यवसाय नहीं किया जा सकता है।
उदाहरण – कोई चिकित्सक चिकित्सकीय व्यवसाय के साथ-साथ विधि व्यवसाय नहीं कर सकता। अधिवक्ता द्वारा विधि व्यवसाय के साथ-साथ अन्य कोई व्यवसाय नहीं किया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में पवन कुमार शर्मा बनाम गुरदयाल सिंह (ए.आई.आर. 1999 एस. सी. 98) का मामला प्रमुख इसमें अधिवक्ता पर टैक्सी का व्यवसाय करने का आरोप था।
इसी तरह एस. टी. डी. बूथ चलाने वाले व्यक्ति तथा पैट्रोलियम उत्पाद के व्यापार-व्यवसाय में लिप्त व्यक्ति को विधि व्यवसाय के लिए हकदार नहीं माना गया।
(7) मिथ्या एवं कूट रचित दस्तावेज पेश नहीं करना
अधिवक्ताओं का कर्तव्य है कि वे न्यायालयों में मिथ्या एवं कूटरचित दस्तावेज (False & forged documents) पेश नहीं करें। ऐसा करना दण्डनीय अपराध है। मिथ्या एवं कूट रचित दस्तावेज पेश करने वाले अधिवक्ता के विरुद्ध समुचित कार्यवाही की जा सकती है।
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(8) निर्धारित पोशाक में रहना
अधिवक्ताओं को सदैव न्यायालयों में निर्धारित पोशाक (Dress) में ही रहना चाहिए। पोशाक से ही अधिवक्ताओं की पहचान बनती है। पुरुष एवं महिला अधिवक्ताओं तथा वरिष्ठ एवं कनिष्ठ अधिवक्ताओं की भिन्न-भिन्न पोशाक निर्धारित है जो संवैधानिक दृष्टि से उपयुक्त है। (जे. आर. पाराशर, एडवोकेट बनाम बार कौंसिल ऑफ इण्डिया, ए.आई.आर. 2002 दिल्ली 482)
केस – डॉ. विसेन्ट पनिकूलंगरा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (ए.आई.आर. 2016 केरल 32)
इस मामले में केरल उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि पोशाक अधिवक्ताओं की पहचान है। यह अधिवक्ताओं को पक्षकारों एवं अन्य व्यक्तियों से पृथक् पहचान दिलाती है। न्यायालय की गरिमा के लिए भी यह अपेक्षित है। अतः उच्च न्यायालय द्वारा पोशाक के सम्बन्ध में नियम बनाये जा सकते हैं।
(9) हड़ताल, बहिष्कार आदि न करें
न्यायालय के प्रति अधिवक्ता के कर्त्तव्य एंव दायित्व है कि वे अपने पक्षकारों के मामलों की निष्ठापूर्वक पैरवी करें। वे अवैध रूप से न तो हड़ताल पर जाएँ और न ही न्यायालयों का बहिष्कार करें।
अधिवक्ताओं को हड़ताल पर जाने अथवा न्यायालयों का बहिष्कार करने का कोई अधिकार नहीं है। हड़ताल एवं बहिष्कार आदि करके मामलों की सुनवाई स्थगित नहीं करनी चाहिए यदि कोई अधिवक्ता ऐसा करता है तो उस पर माननीय न्यायालय द्वारा खर्चा (Costs) भी अधिरोपित किया जा सकता है।
(10) बार-बैंच में मधुर सम्बन्ध बनाए रखें
प्रत्येक अधिवक्ता का यह कर्तव्य है कि वह बार एवं बैंच (Bar & Bench) में सदैव मधुर सम्बन्ध बनाए रखें। ऐसा कोई कार्य नहीं किया जाए जिससे बार एवं बैंच के सम्बन्धों में दरार पड़ जाए।
‘प्रेम सुराणा बनाम एडिशनल मुंसिफ एवं ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट’ (ए.आई.आर. 2002 एस. सी. 2956) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि-बार एवं बैंच के बीच यथासम्भव निकटस्थ सौहार्द का वातावरण रहना चाहिए। संवैधानिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए यह अपरिहार्य है।
अधिवक्ता न्यायालय के अपने साथी अधिवक्ताओं के साथ गरिमायुक्त एवं शालीनता का व्यवहार करें। ठीक ऐसा ही व्यवहार पक्षकारों के साथ भी हो। चार एवं बैंच के बीच सौहार्द के बिना न्याय प्रशासन सुचारु रूप से कार्य नहीं कर सकता।
(11) विपक्ष के साथ दुरभिसंधि न करें
अपने पक्षकार के लिए अधिवक्ता के कर्त्तव्य है कि वह अपने पक्षकार के प्रति निष्ठावान रहे और विश्वास की डोर को तोड़े नहीं। वह विपक्ष के साथ नहीं मिले तथा ऐसा कोई कार्य नहीं करे जिससे अपने पक्षकार के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े। विपक्ष के साथ दुरभिसंधि (Collusion) करना वृतिक कदाचार है।
(12) पक्षकारों को गलत राय न दें
अधिवक्ताओं का यह कर्तव्य है कि वे अपने पक्षकारों को कभी गलत राय न दें और न कभी उन्हें भ्रमित करें। (पाण्डुरंग दत्तात्रेय खण्डेकर बनाम बार कौंसिल ऑफ महाराष्ट्र, ए.आई.आर. 1984 एस. सी. 110)
यदि किसी मामले में उसके पक्षकार की हार हो जाती है तो वह पक्षकार को अपील, पुनरीक्षण, पुनर्विलोकन आदि की राय दें। हार के तथ्य को छिपाएँ नहीं।
(13) न्यायालय की गरिमा बनाए रखे
प्रत्येक अधिवक्ता का यह पावन कर्तव्य है कि वह हर कीमत पर न्यायालय की गरिमा को बनाए रखे। वह ऐसा कोई कार्य नहीं करे जिससे न्यायालय की गरिमा को ठेस पहुँचे। इसके लिए अधिवक्ताओं को –
(i) न्यायालय एवं न्यायाधीशों का सम्मान करना चाहिए तथा उन पर मिथ्या दोषारोपण नहीं किया जाना चाहिए।
(ii) न्यायालय में संयत एवं संसदीय भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिए।
(iii) क्रोध एवं उत्तेजना से बचना चाहिए।
(iv) न्यायालय में अनुचित साधनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
(v) न्यायालय को भ्रमित नहीं करना चाहिए।
(vi) न्यायालय में अवैध लेन-देन नहीं किया जाना चाहिए।
(vii) न्यायालय के निर्णयों, आदेशों आदि पर अनावश्यक टीका-टिप्पणी नहीं करनी चाहिए।
(vii) न्यायालय के विभिन्न कार्यक्रमों (विधिक सहायता, लोक अदालत, विधिक साक्षरता आदि) में भागीदारी निभाते हुए सहयोग करना चाहिए।
(ix) अनावश्यक स्थगन (Adjournments) नहीं लेना चाहिए। मामलों के त्वरित निस्तारण में सहयोग किया जाना चाहिए।
बैजनाथ प्रसाद गुप्ता वनाम सीनियर रीजनल मैनेजर (ए.आई. आर. 2000 पटना 139) के मामले में पटना उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि अधिवक्ताओं को न्यायालय की गरिमा को अक्षुण्ण रखते हुए अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वहन करना चाहिए। अधिवक्ता के कर्त्तव्य
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