लोकहित वाद से आप क्या समझते हैं ? लोकहित वाद का अर्थ, विस्तार एवं उद्देश्य की विस्तृत विवेचना

लोकहित वाद 20वीं सदी के अन्त की एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा है। आमजन को सस्ता एवं शीघ्र न्याय उपलब्ध कराने तथा संविधान के अनुच्छेद 39क के उपबंधों को मूर्त रूप प्रदान करने का यह एक अनूठा मंच है।

इस मंच के माध्यम से निर्धन एवं मध्यम वर्ग के व्यक्तियों की पीड़ा को दूर कर उन्हें जल्द से जल्द न्याय उपलब्ध करवाया जाता है तथा यह कार्यपालिका की शक्तियों के दुरुपयोग को भी रोकता है।

लोकतंत्र में लोकहितवाद विधि के शासन (Rule of law) का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। विधि का शासन केवल सम्पन्न वर्ग के हितों की ही सुरक्षा नहीं करता है, बल्कि समाज के कमजोर वर्ग को भी न्याय के समान अवसर उपलब्ध कराता है।

लोकहित वाद क्या है –

लोकहित वाद को Public interest litigation भी कहा जाता है इसका शाब्दिक अर्थ- “ऐसा वाद या न्यायिक कार्यवाही जिसमें जन साधारण अथवा जनता के एक बड़े वर्ग का हित निहित हो” है। आसान शब्दों में यह कहा जा सकता है कि व्यापक जनहित से जुड़ा मामला लोकहित वाद है।

जब कोई व्यक्ति अपने हितों के संरक्षण के लिए अर्थर्थाभाव (गरीबी) अथवा अन्य किसी कारण से न्यायालय में अपना प्रार्थना पत्र या वाद पत्र प्रस्तुत नहीं कर पाता है तो उसकी ओर से कोई भी अन्य व्यक्ति या संगठन न्यायालय में दस्तक दे सकता है। यही लोकहित वाद है। लोकहित वाद के माध्यम से कमजोर वर्ग के हितों को सरंक्षित करने का प्रयास किया गया है|

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उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश कृष्ण अय्यर का कहना है कि- “पीड़ित एवं व्यथित व्यक्ति के ही न्यायालय में जा सकने की संकुचित धारणा अब समाप्त हो गई है। उसका स्थान अब वर्ग कार्यवाही, लोकहित वाद, प्रतिनिधि वाद आदि ने ले लिया है। अब कोई भी व्यक्ति जो किसी लोकहित (Public Interest) से जुड़ा है, ऐसे हितों की सुरक्षा के लिए न्यायालय में जा सकता है।”

उदाहरण – गंगा के पानी में सबका हित है जिसके पानी का प्रयोग जनसाधारण द्वारा किया जाता है। ऐसे में गंगा के पानी को दूषित होने से रोकने के लिए उस पानी में हित रखने वाले व्यक्तियों द्वारा लोकहित वाद लाया जा सकता है। इसी प्रकार ताजमहल के सौन्दर्य की रक्षा के लिए लोकहित वाद लाया जा सकता है क्योंकि ताजमहल में जनसाधारण का व्यापक हित शामिल है।

‘एस.पी. गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया’ के मामले में कहा गया है कि, न्यायाधीशों के स्थानान्तरणों को अधिवक्ताओं द्वारा संविधान के अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत चुनौती दी जा सकती है क्योंकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता में सबका हित निहित है। इसी तरह ‘जम्मू कन्जूमर कौंसिल बनाम स्टेट’ के मामले में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने प्रदूषणमुक्त जल के उपयोग करने के अधिकार को लोकहित वाद का विषय माना है।

लोकहित वाद के मामले –

न्यायालयों द्वारा समय-समय पर लोकहित वादों की व्याख्या की गई है और निम्नांकित मामलों को लोकहित वाद की परिधि में माना गया है-

(i) बंधुआ मजदूरी;

(ii) श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी;
(iii) बाल शोषण;

(iv) नारी उत्पीड़न;

(v) पुलिस यंत्रणा;

(vi) पर्यावरण संरक्षण;

(vii) दलित एवं पिछड़े वर्गों पर अत्याचार;

(viii) पारिवारिक पेंशन;

(ix) हिंसा से प्रभावित पीड़ित व्यक्ति;

(x) नारी निकेतनों की दुर्दशा;

(xi) कारागृहों में शोषण, उत्पीड़न एवं अव्यवस्था, आदि।

लेकिन निम्नांकित मामलों को लोकहित वाद में सम्मिलित नहीं माना गया है-

(क) भू-स्वामी एवं किरायेदार के बीच विवाद;

(ख) सेवा अथवा नौकरी;

(ग) सरकार के विरुद्ध निजी शिकायतें;

(घ) शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश आदि।

माननीय न्यायालय द्वारा ऐसे मामले को लोकहित वाद नहीं माना गया है, –

जिसमें सड़कों के निर्माण हेतु उच्च न्यायालय से निदेश जारी करने का अनुतोष चाहा गया हो, न्यायालय से शीघ्र सुनवाई को चाहा गया हो, किसी व्यक्ति द्वारा निजी हितों से प्रेरित होकर रिट संस्थित करना, राजनीति से प्रेरित कोई मामला, किसी सार्वजनिक उपक्रम पर कार्य या कार्यलोप (act or omission) के आरोप का मामला, समय पर नगरपालिकाओं के चुनाव नहीं कराये जाने के कारण मुख्यमंत्री को हटाये जाने की याचिका, आदि|

किशोर भाई डी. पंचाल बनाम स्टेट ऑफ गुजरात के मामले में गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा स्पष्ट रूप से कहा गया है कि, लोकहित वाद का लक्ष्य न तो राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति करना है और ना ही राजनैतिक समस्याओं का समाधान करना है।

लोकहित वाद का उद्देश्य –

लोकहित वाद का मुख्य उद्देश्य समाज के कमजोर वर्ग को न्याय के समान अवसर उपलब्ध कराना है। जो व्यक्ति अर्थाभाव या अन्य किसी कारण से न्यायालय में दस्तक दे सकने में असमर्थ है, उनके हितों को लोकहित वादों के माध्यम से संरक्षण प्रदान किया जाता है।

लोकहित वाद की अवधारणा का मुख्य उद्देश्य समाज के कमजोर वर्ग की सहायता करना तथा उन्हें न्याय के समान अवसर उपलब्ध कराना है।

लोकहित वाद की प्रकृति प्रतिकूलात्मक मुकदमेबाजी की नहीं है। यह सरकारी तंत्र को मानव अधिकारों को अर्थपूर्ण बनाने की चुनौती भी देती है और अवसर भी प्रदान करती है।

न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती का मत है कि “न्याय अब केवल सम्पन्न व्यक्तियों की बपौती नहीं है। न्यायालय के मन्दिर सर्वसाधारण के लिए खुले हैं।

लोकहित बाद के उपरोक्त उद्देश्य इस बात में भी परिलक्षित होते हैं कि ऐसे मामलों को तकनीकी आधारों पर खारिज नहीं किया जा सकता है।

लोकहित वाद का क्षेत्र –

लोकहित वाद का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। इसके क्षेत्र का अध्ययन दो दृष्टियों से किया जा सकता है – विषयवस्तु की दृष्टि से तथा अधिकारिता (locus standi) की दृष्टि से।

जहाँ तक विषय-वस्तु (subject matter) का प्रश्न है; ऊपर कहा जा चुका है कि लोकहित वाद की परिधि में ऐसे मामले आते हैं-

(i) जो व्यापक जन हित (public interest) से जुड़े हुए हैं;

(ii) जिनमें निजी हित (private interest) निहित नहीं है; एवं

(iii) जो राजनीति से प्रेरित नहीं है।

ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें यह अभिनिर्धारित किया गया है कि निजी हित से जुड़े मामले लोकहित वाद के माध्यम से नहीं उठाये जा सकते हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि लोकहित वादों का क्षेत्र व्यापक जन हित (public interest at large) तक विस्तृत है।

जहाँ तक ‘अधिकारिता’ (locus standi) का प्रश्न है, अब यह स्पष्ट हो चुका है कि लोकहित से जुड़े मामले को किसी भी व्यक्ति अथवा संगठन द्वारा न्यायालय में उठाया जा सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि पीडित अथवा व्यथित व्यक्ति ही न्यायालय में दस्तक दें।

सामान्य नियम यह है कि संविधान के अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत कोई रिट केवल उसी व्यक्ति द्वारा संस्थित की जा सकती है जिसके विधिक अधिकारों का अतिक्रमण हुआ हो। लेकिन अब यह धारणा बदल चुकी है।

अब समाज का कोई भी व्यक्ति, संघ या संगठन किसी ऐसे व्यक्ति या वर्ग के विधिक अधिकारों के संरक्षण के लिए न्यायालय में दस्तक दे सकता है जो निर्धनता या अन्य किसी कारण से न्यायालय तक पहुँचने में असमर्थ है। आवश्यक मात्र यह है कि ऐसे मामलों में व्यापक जनहित होना जरुरी है।

‘अखिल भारतीय रेलवे शोषित कर्मचारी संघ बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया’ के मामलें में कहा गया है कि, कोई व्यक्ति अर्थाभाव के कारण न्यायालय में जाने में असमर्थ है तो उसकी ओर से कोई भी अन्य व्यक्ति या संगठन न्यायाल में दस्तक दे सकता है। लोक हित वाद केवल पीड़ित पक्षकार द्वारा ही प्रस्तुत किया जा सकता है।

लोकहित वाद के बढ़ते हुए क्षेत्र का अच्छा उदाहरण पत्रों एवं समाचार पत्रों की कतरनों को रिट मानकर उन पर कार्यवाही किया जाना है।

पिछले कुछ वर्षों से समाचार पत्रों की कतरनों तथा पोस्टकार्डों व पत्रों को रिट मानकर कार्यवाही करने की प्रवृत्ति में अभिवृद्धि हुई है। इस प्रकार लोकहित वाद 20 वीं सदी के अन्त एवं 21 वीं सदी के शुरुआत की एक ऐसी नवीनतम अवधारणा है जिसने समाज के कमजोर वर्ग की आँखों के आँसू पोंछने में सार्थक भूमिका निभाई है।

लोकहित वाद एवं प्राइवेट (निजी) हित वाद में अन्तर –

लोकहित वाद 20वीं सदी के अन्त एवं 21वीं सदी के शुरुआत की उपज है जबकि प्राइवेट (निजी) हित वाद एक परम्परागत विधिक प्रक्रिया है। इस कारण इन दोनों में काफी अन्तर है। इन दोनों के बीच में अन्तर को जानने से पूर्व यहाँ दोनों का अर्थ स्पष्ट कर देना सही होगा।

लोकहित वाद –

लोकहित वाद से तात्पर्य ऐसी न्यायिक कार्यवाही या वाद से है जिसमें जन साधारण का हित निहित रहता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि व्यापक जन हित से जुड़ा मामला लोकहित वाद कहलाता है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि लोकहित वाद एक ऐसा वाद या मुकद्दमा होता है जिसमें किसी व्यक्ति का निजी हित निहित नहीं होकर व्यापक जनहित निहित रहता है।

उदाहरणार्थ – गंगा का पानी, ताजमहल का सौन्दर्य, न्यायाधीशों का स्थानान्तरण आदि ऐसे मामले हैं जिनमें व्यापक लोकहित सन्निहित है; अतः इनके सम्बन्ध में लोकहित वाद लाया जा सकता है।

प्राइवेट हित वाद

प्राइवेट हित वाद (Private Interest Litigation), लोकहित वाद से अलग है। इसमें व्यक्ति या संस्था विशेष का निजी हित शामिल होता है। व्यक्ति या संस्था द्वारा अपने निजी हितों के संरक्षण के लिए न्यायिक कार्यवाही की जाती है।

ऐसी कार्यवाही स्वयं व्यथित या पीड़ित पक्षकार को करनी होती है। किसी अन्य व्यक्ति, संघ या संस्था द्वारा न्यायिक कार्यवाही नहीं की जा सकती।

उदाहरण – यदि ‘क’ की भूमि में ‘ख’ द्वारा अतिक्रमण किया जाता है तो ‘क’ द्वारा ‘ख’ के विरुद्ध की जाने वाली न्यायिक कार्यवाही लोकहित वाद न होकर प्राइवेट (निजी) हित वाद होगी।

प्राइवेट हित वाद में की कार्यवाही भूतलक्षी होती है तथा इसमें दो पक्षकार होते हैं। दोनों पक्षकार वाद-प्रतिवाद करते हैं जो लम्बे समय तक चलता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि लोकहित वाद एवं प्राइवेट हित वाद दोनों एक-दूसरे से अलग-अलग है तथा दोनों की अवधारणायें भी अलग-अलग हैं।

अन्तर

लोकहित वाद एवं प्राइवेट हित वाद में मुख्यतया निम्नांकित अन्तर देखने को मिलता है-

1. लोकहित वाद व्यापक जनहित (public interest at large) से जुड़ा होता है जबकि प्राइवेट हितवाद निजी हितों से जुड़ा होता है अर्थात् इसमें व्यक्ति विशेष के हित निहित रहते है।

2. लोकहित वाद का मुख्य उद्देश्य सार्वजनिक हितों को संरक्षण प्रदान करना है जबकि प्राइवेट हित वाद का मुख्य उद्देश्य निजी हितों को संरक्षण प्रदान करना है।

3. लोकहित वाद में दो पक्षकार नहीं होते हैं अर्थात् यह द्विपक्षीय नहीं होता है जबकि प्राइवेट हित वाद द्विपक्षीय होता है।

4. लोकहित वाद भविष्यलक्षी (prospective) होता है जबकि प्राइवेट हित वाद भूतलक्षी (retrospective) होता है।

5. लोकहित वाद में अधिकार एवं उपचार एक-दूसरे पर निर्भर नहीं करते हैं क्योंकि इसमें उपचार चाहने वाला व्यक्ति अपने अधिकारों के लिए संघर्ष नहीं करता है जबकि प्राइवेट हित वाद में अधिकार एवं उपचार एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं क्योंकि इसमें उपचार चाहने वाला व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रवर्तन के लिए संघर्ष करता है।

6. लोकहित वाद की न्यायिक प्रक्रिया अत्यन्त सरल होती है जबकि प्राइवेट हित वाद की प्रक्रिया कठिन अर्थात् जटिल, व्ययसाध्य एवं विलम्बकारी होती है।

7. लोकहित वाद में साक्ष्य अपेक्षाकृत कम विस्तृत एवं तकनीकी बारीकियों से मुक्त होता है जबकि प्राइवेट हित वाद में साक्ष्य का समुचित आंकलन किया जाता है।

8. लोकहित वाद में वाद या याचिका को वापस नहीं लिया जा सकता है जबकि प्राइवेट हित वाद में वाद या याचिका को वापस लिया जा सकता है।
9. लोकहित वाद की विषय-वस्तु सामान्यतः सामाजिक एवं राष्ट्रीय हित होती है जबकि प्राइवेट हित वाद की विषय-वस्तु निजी अधिकार होती है।

10. लोकहित वाद में न्यायाधीश का कार्य एवं दृष्टिकोण अत्यन्त संवेदनशील एवं राष्ट्रीय दायित्व से परिपूर्ण होता है जबकि प्राइवेट हित वाद में न्यायाधीश का कार्य एवं दायित्व साक्ष्य के मूल्यांकन तक सीमित होता है।

11. लोकहित वाद में वादी अथवा याचिकादाता का कोई निजी हित नहीं होता और न वह अपने लिए संघर्ष करता है जबकि प्राइवेट हित वाद में वादी अथवा याचिकादाता का निजी हित निहित होता है और वह अपने अधिकारों के लिए ही संघर्ष करता है।

12. लोकहित वाद किसी भी ऐसे व्यक्ति द्वारा संस्थित किया जा सकता है जिसका ऐसे मामले में हित निहित रहता है। इसमें पीड़ित या व्यथित पक्षकार द्वारा ही कार्यवाही किया जाना आवश्यक नहीं है जबकि प्राइवेट हित वाद में कार्यवाही व्यक्तिशः करनी होती है।

शीला बर्से बनाम यूनियम ऑफ इण्डिया के मामले में उच्चत्तम न्यायालय द्वारा लोकहित वाद एवं प्राइवेट हित वाद के बीच अन्तर को स्पष्ट किया गया है, इसमें कहा गया है कि- “लोकहित वाद में परम्परागत प्राइवेट मुकद्दमा से अलग, विवाद का निपटारा करने की मैकेनिज्म है, क्योंकि उसमें (लोकहित वाद में) व्यक्तिगत अधिकारों का निर्धारण अथवा न्यायनिर्णयन नहीं होता।

जबकि साधारण परम्परागत न्याय निर्णयनों में केवल दो पक्षकार होते हैं तथा विवाद भूतकालीन घटना के विधिक परिणामों के निर्धारण से सम्बन्धित होता है तथा उपचार पक्षकारों की तर्क सम्मतत्ता पर निर्भर करता है जबकि लोकहित वाद में कार्यवाहियाँ परम्परागत तरीके व अवरोध से बाहर श्रेष्ठ व आर्थिक बदलाव की सांविधिक प्रतिज्ञा है तथा समान अवसर पर आधारित व्यवस्था तथा कल्याणकारी राज्य की स्थापना को प्रोत्साहित करने के लिए विकसित की गई है।”

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